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परमश्रद्धेय गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्रसूरी की अन्तिम देशनामय सरलार्थ एवं श्रद्धांजलि/134
मेरा माना हुआ ही सत्य है, ऐसा मानना और कहना अज्ञान है, अहंकार जन्य हठ है। ऐसा व्यक्ति कभी भी तत्व बोध प्राप्त नहीं कर सकता। इतना ही नहीं, अपने समस्त ज्ञान स्त्रोतों का ही मार्ग बंद कर देना है, एक तरह से। सत्य की परीक्षा और यथार्थ के निर्णय के लिए कई आधार भी हो सकते हैं। एक ही प्रकार की पद्धति का आग्रह,हठ है, नये भाव है। जो धर्म-मार्ग के अनुयायियों के लिए सर्वथा अस्वीकार्य माना गया है। तत्व निरूपण में कभी आग्रही मत बनना। एक ही वस्तु विभिन्न स्थितियों, देश, काल, पात्रता के आधार पर विभिन्न भाव वाले अनुभव में आती है। आप लोग जिनेश्वर भगवान द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त की भावना को गहराई से समझते हुए, सदैव साम्यभाव और सम्यकत्व का आश्रय लेकर सत्य के तत्व का निरूपण करना।" . "रत्नत्रय ज्ञान-दर्शन-चरित्र का सदैव अवलम्बन लेते रहना। इन्हीं से मानव जीवन में उत्थान और कल्याण का पथ प्रशस्त होता है। रत्नत्रय के आधार को छोड़ देने से पतन तथा विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता। मानव जीवन व्यर्थ चला जाता हैं। जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ते समय तद्विषयक परिपूर्ण ज्ञान की उपलब्धि, तदनन्तर उसे आत्मानुभूति का आधार देना और फिर शुद्ध संस्कार के रूप में अपने चारित्र का अंग बना लेना ही मनुष्य की सफलता का आधार बनते हैं।" . “साधु जीवन का मूल आधार उसकी श्रद्धा है। श्रद्धा रहित आचरण और कर्म मात्र दम्भ है, दिखावा है। यही एक तरह का आत्म छल भी है। आत्म प्रवंचना है। मूर्ति-पूजन, मंदिर जाना स्वाध्याय, तप आदि के मूल में यदि श्रद्धा नहीं है, तो इनसे मनुष्य के दम्भ की ही वृद्धि होती है, एक मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन की ही रीति-नीति सिद्ध होती है और इससे आत्म कल्याण का कोई आधार नहीं बनता। आप लोग सदैव अपने अन्तर को श्रद्धामय बनाये रखना।"