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133 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
आदि के साथ दृढ़ता से साध्वाचार की अनुपालना करना था, • जिससे हमें अपने जीवन में प्रकाश, प्रेरणा, साहस व आत्मसम्बल का आधार मिलता रहा। इसी प्रकार जीवन में आने वाले वैर - विरोध, परीषहों को भी हमने धैर्य और सहिष्णुता की शक्ति से निरस्त किया। यह सनातन नीति भी है। आप लोग भी अपनी जीवन-यात्रा में आने वाले कष्ट, परीषहों को इसी प्रकार सहन कर हु अपने मार्ग प्रशस्त रखना । जीवन की इस संध्या बेला में हम पूर्णतः स्वः में लीन हो जाना चाहते हैं । गच्छ तथा श्रीसंघ का भार आप लोगों को सौंपकर अब सभी भाँति निश्चित होते हैं ।"
तथा
“स्वाध्याय, तप, उपासना, साध्वाचार की दृढ़ता से पालना जिन धर्म में निरत रहते हुए लोकमंगल की साधना–आत्मकल्याण की दिशा में प्रयत्नशील बने रहना, साधु-साध्वियों के लिए अत्यावश्यक है । इन पुण्य कार्यों से कभी भी जी मत चुराना, कभी कोई प्रमाद नहीं करना ।" किसी भी क्षेत्र में किया गया प्रमाद कल्याणार्थी का सबसे बड़ा शत्रु है । प्रमाद ही बंधन है। प्रमाद के प्रभावश ही मनुष्य अपने जीवन, धन, समय और महान उपलब्धियों से हाथ धो बैठता है। प्रमाद एक तरह का आत्मघात है । "
"किसी भी काल और स्थिति में संकुचित मत बनना । ज्ञान का क्षेत्र बड़ा विशाल है । व्यापक है । तत्व - विचार और धर्म समीक्षा में सदैव सन्तुलित मनोवृत्ति तथा आग्रह के कारण, सीखने, समझने और जानने के मार्ग बन्द हो जाते हैं। इसी प्रकार कम जानकारी रखकर अपने ज्ञान अहंकार से किसी को प्रताड़ित करना अथवा किसी की खिल्ली उड़ाना, उपेक्षा करना भी साध्वाचार के प्रतिकूल है । "
"यथार्थ की स्वीकृति और सत्य का नम्रतायुक्त प्रतिपादन करने में सदैव अग्रसर रहना । यथार्थ और सत्य दोनों ही सार्वभौम सनातन आधार हैं। जिनके सहारे समस्त आचार-विचार, सिद्धान्त, व्यवहार, मर्यादाओं का भवन खड़ा होता है । मेरा कहा हुआ या ।