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________________ गुण स्थान/100 अनंत कर्म कम कर दिये जाते हैं। इसमें त्रिकाल जीवों के परिणाम/अध्यवसाय, अन्तर्मुहर्त के अनंत समयों के प्रत्येक समय में समान होते हैं। अनिवृत्ति का अर्थ 'अन्तर नहीं होना है हालांकि पूर्व समय से हर पश्चातवर्ती समय के परिणाम, असंख्य गुणा अधिक विशुद्ध होते हैं। पूर्व के गुणस्थान से भी इसमें भाव और अधिक विशुद्ध होते हैं। इसी से उपशम श्रेणी एवं क्षपक श्रेणी अलग-अलग हो जाती है। यद्यपि उसकी तैयारी पूर्व गुण-श्रेणी से होती है। दसधर्म, बारह भावनाएँ, समितियाँ, गुप्तियाँ, तप में भावना व धर्म ध्यान में दृढ़ता अनुपम हो जाती है। ये भावनाएं उसे उपशांत कषाय वीतराग अवस्था तक पहुंचा देती है। चारित्र-मोहनीय कर्म के सिवाय लोभ की, सभी प्रकृतियाँ उपशांत अथवा क्षय हो जाती है। स्त्रीवेद, पुरूषवेद, नपुसंकवेद, उपकषाय जैसे हास्य, रति, अरति, भय, शोक उपशंत/क्षय हो जाते हैं। 10. सूक्ष्म सपराय में मात्र संज्जवलन लोभ है। अन्य सभी कषाय सर्वथा उपशांत हो जाते हैं। अन्तरकरण की उत्क्रांति की सतत् प्रगति पूर्व वर्णित पाँच पदार्थों के गठित होने से सम्भव होती है। मोह का बंधन अब सम्भव नहीं है। स्थिति अन्तर्मुहुर्त है। __11. उपशांत कषाय- निर्मल जल की तरह कषाय सर्वथा उपशांत किये हैं, सज्जवलन लोभ को भी। लेकिन अब तक उनहें क्षय नहीं किया है। अतः वे अनंतानुबंधी कर्मोदय के प्रभाव उसे आवश्यक रूप से च्युत कर सातवें, छठे, तीसरे आदि में गिरा देते हैं ताकि मूलतः अधिक बार उपशम श्रेणी न कर क्षपक श्रेणी द्वारा वीतराग छद्म अवस्था को पा लेता है क्योंकि क्षपक अवस्था पाये बिना केवल्य एवं मोक्ष सम्भव नहीं है। इसी भव में भी या एक दो भव में आत्मवीर्य से क्षपक श्रेणी द्वारा चरम गुणस्थानं 'मोक्ष' वरण कर लेता है। ____ 12. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ एवं 13वीं संयोगि केवलीअवस्था में कोई सम्पराायिक कर्म बन्धन यानी राग द्वेष युक्त बन्धन नहीं होता है। केवल इर्यापथिक सातावेदनीय-बंधन होता
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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