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99/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
अरति, भय, शोक, जुगुप्सा एवं त्रिवेद आदि उपकषाय सम्मिलित हैं उन्हें अभी सर्वथा क्षय या यहाँ तक कि उपशमित या क्षयोपशमित नहीं कर सका है। उक्त अवस्था से उबरने के लिये 'धर्म ध्यान' से आत्मलीन होना अनिवार्य है। आत्मा के यानी धर्म के दसरूप में वृद्धि होती है । उत्तम, क्षमा, मार्दव, आर्जव (सरल निष्कपट आचरण) सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अंकिचन्य, ब्रह्म आदि आत्मगुण बढ़ते हैं।
8. निवृत्ति बादर गुण स्थान- को 'अपूर्वक करण' भी कहते हैं। यथाप्रवत्ति करण से इस अवस्था में पहुंचना एक विशिष्ट क्रांति है। राग द्वेष के साथ-साथ कर्मों को विस्मयकारी अल्पीकरण, उनकी दीर्घस्थिति का बहुत कम कर देना, उनकी शक्ति को इसी तरह घटा देना, अशुभ कर्मों का उदयमान, शुभकर्मों की प्रकृति में संक्रमित या बदल देना आदि अपूर्व करण है। रागद्वेष की मजबूत तथा अभेद्य सी ग्रंथि का भेदन करना भी इस अवस्था में संभव है। उस गुण स्थान की अन्तर्मुहूर्त स्थिति के अनंत समयों-जैसे लोकाकाश के अनंत प्रदेशों की तरह के प्रत्येक समय मे त्रैकालिक जीवों के परिणाम/अध्यवसाय भिन्न-भिन्न होते हैं। यह यौगिकी अवस्था है। चौथे गुण स्थान से नवें तक उत्तरोत्तर गुणस्थान में असंख्य-असंख्य गुणा कर्म उपशांत/क्षय होते जाते हैं। गच्छाधिपति तुलसी के शब्दों में निवृत्ति का अर्थ विसदृशता है। उत्तम अनुप्रेक्षा यानी शुभ भावों की प्रतिपल अपूर्व वृद्धि होकर कर्मों की स्थिति बहुत अल्प हो जाती है ।
9. अनिवृत्ति बादर गुण स्थान में भी उपरोक्त पांचों पदार्थ जिनके अर्थ बताये है जिन्हें स्थिति-घात, रसघात, गुण-श्रेणी, गुण-संक्रमण एवं अल्प स्थिति बंधन कहते हैं, का और अधिक विकास होता है, क्योंकि मोहनीय कर्म के सभी उपरोक्त रूप नपुसंकवेद, स्त्रीवेद, पुरूषवेद तथा संज्वलन कषाय-क्रोध, मान, माया का भी या तो सर्वथा उपशम हो जाता है , या क्षपक श्रेणी आरूढ़ कर क्षय कर देता है। जो योगिराज की अवस्था है तब