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70. योग सर्वस्व
योगः कल्पतरु श्रेष्ठो योगश्चिंतामणिपरः । योगः प्रधानं धर्माणां, योग: सिद्धे स्वयंग्रह ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1634]
- योगबिन्दु - 37 योग उत्तम कल्पवृक्ष है, उत्कृष्ट चिन्तामणि रत्न है जो कल्पवृक्ष तथा चिन्तामणि रत्न की तरह साधक की इच्छाओं को पूर्ण करता है, वह योग सब धर्मों में मुख्य है तथा सिद्धि का अनन्य हेतु है। 71. योग-शक्ति
तथा च जन्मबीजाग्निर्जरसोऽपि जरा परा । दुःखानां राजयक्ष्माऽयं मृत्योर्मृत्युरुदाहृतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1634]
- योगबिन्दु - 38 जन्मरूपी बीज के लिए योग अग्नि है । वह बुढ़ापे का भी बुढ़ापा है, दु:खों के लिए राजयक्ष्मा है, एवं मृत्यु का भी मृत्यु है। 72. योग-माहात्म्य
कुण्ठीभवन्ति तीक्ष्णानि, मन्मथास्त्राणि सर्वथा । योगवर्माऽऽवृते चित्ते तपश्छिद्रकराण्यपि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1634]
- योगबिन्दु 39 मासक्षमणादि तप करनेवाले तपस्वियों को तपोभ्रष्ट करनेवाले कामदेव के कामविकार रूप तीक्ष्ण शस्त्र (शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श) भी, जिन्होंने योग का कवच पहना है उनके चित्त पर, असर नहीं करते, उनके. सामने वे कामशास्त्र भोथरे बन जाते हैं । 73. योग-लाभ
किं चान्यद् योगतः स्थैर्य धैर्यं श्रद्धा च जायते । मैत्रीजनप्रियत्वं च प्रातिभं तत्त्वं भासनम् ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4.74