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429. जिनवचन से सर्वार्थ-सिद्धि
अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति । हृदयेस्थिते च तस्मिन्, नियमात् सर्वार्थसंसिद्धिः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2722] - - धर्मबिन्दु 5/14 (1)
जब तीर्थंकरवचन हृदय में है तो वास्तव में तीर्थंकर भगवन्त स्वयं हृदय में विराजमान है । जब तीर्थंकर प्रभु ही साक्षात् हृदय में है, तब निश्चय ही सकल अर्थ की सिद्धि होती ही है । 430. धर्म-विशुद्धि एगा धम्मपडिमा, जं से आया पज्जवजाए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2723]
- स्थानांग - 1430 ___ एक धर्म ही ऐसा पवित्र अनुष्ठान है; जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है। 431. मोक्ष
जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरओ। तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो भवइ सासओ ॥ _ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2724]
- दशवकालिक - 4/48 जब आत्मा समस्त कर्मों को क्षयकर सर्वथा मलरहित सिद्धि को पा लेती है; तब वह लोक के मस्तक पर स्थित होकर सदा के लिए सिद्ध हो जाती है। 432. मुक्ति
जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जइ । तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धि गच्छइ नीरओ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2724]
- दशवकालिक - 4/47 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 165