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अर्थ और काम में मनुष्य बिना उपदेश के भी निपुण होता है; किन्तु धर्मज्ञान शास्त्र के बिना नहीं होता। अत: शास्त्र के प्रति आदर रखना मनुष्य के लिए बड़ा हितकर है। 422. शास्त्र, ज्योति लोके मोहान्धकारेऽस्मिन् शास्त्रालोकः प्रवर्तकः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2720]
- योगबिन्दु 224 इस लोक के मोहल्पी अन्धकार को दूर करने के लिए शास्त्र ही दीपक (ज्योति) है और वही उसे हेय-उपादेय वस्तु को बतानेवाला एवं सही मार्ग पर ले जानेवाला प्रकाश है । 423. अन्धप्रेक्षा तुल्य क्रिया
न यस्य भक्तिरेतस्मिंस्तस्य धर्मक्रियाऽपिहि । अन्धप्रेक्षा क्रिया तुल्या कर्मदोषादसत्फला ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2720]
- योगबिन्दु 226 . जिसकी शास्त्र में श्रद्धा-भक्ति नहीं है, उसके द्वारा आचरित धर्मक्रिया भी कर्म-दोष के कारण उत्तम फल नहीं देती । वह अंधे मनुष्य की प्रेक्षा-क्रिया के उपक्रम जैसी है । अंधा देखने का प्रयत्न करने पर भी कुछ देख नहीं पाता । यही स्थिति उस क्रिया की है । अन्धे के पास नेत्र नहीं है; और शास्त्र-भक्ति शून्य पुरुष के पास शास्त्र से प्राप्त ज्ञान-चक्षु नहीं है । इसतरह दोनों एक अपेक्षा से समान ही है । 424. शास्त्र-अनादर
यस्य त्वनादरः शास्त्रे तस्य श्रद्धादयो गुणाः । उन्मत्तगुणतुल्य त्वान्न; प्रशंसास्पदं सताम् ॥ - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2720]
- योगबिन्दु - 228 जिसका शास्त्र के प्रति अनादर है; उसके श्रद्धा, व्रत, त्याग, प्रत्याख्यान आदि गुण एक पागल अथवा भूत-प्रेत आदि द्वारा ग्रस्त उन्मादी पुरुष के गुण जैसे हैं । वे सत्पुरुषों द्वारा प्रशंसनीय नहीं हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 163