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आत्म-शोधक मनुष्य के लिए शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का संसर्ग
और पौष्टिक- स्वादिष्ट भोजन- ये सब तालपुट विष के समान महान् भयंकर
है ।
415. दृष्टि - संहरण
चित्तभित्ति न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिवदट्टणं दिट्ठि पडिसमाहरे ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2713] दशवैकालिक - 8/54
साधु चित्र- भित्ति (स्त्रियों के चित्रों से चित्रित दीवार) को अथवा सुसज्जित नारी को टकटकी लगाकर न देखें। कदाचित् सहसा उस पर दृष्टि पड़ जाए तो वह दृष्टि तुरन्त वैसे ही वापस हटा लें जैसे ( मध्याह्नकालीन) सूर्य पर पड़ी हुई दृष्टि हटा ली जाती है ।
416. भाव - प्रतिलेखन
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किं कयं किं वा सेसं, किं करणिज्जं तवं न करेमि । पुव्वावरत्तकाले, जागरओ भावपडिलेह त्ति ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2715] धर्मबिन्दु सटीक 5/71 [1]
मैं क्या किया, क्या करना शेष है; और करने योग्य कौन-सा तप नहीं करता हूँ ? इसप्रकार प्रातः काल उठकर भाव प्रतिलेखन करे ।
417. धर्म-द्वार
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चत्तारि धम्मदारा पण्णता - तंजहा - खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2719] स्थानांग - 4/4/4/372
क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता - ये चार धर्म के द्वार हैं ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 161