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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2701]
- ज्ञाताधर्मकथा - 1MBI जो मनुष्य विषय भोगों में आसक्त रहते हैं; वे दुस्तर संसार-समुद्र में डूब जाते हैं। 372. कोई रक्षक नहीं
माता-पिता ण्हुसाभाया, भज्जा पुत्ता य ओरसा । णालं ते तव ताणाए, लुप्पंतस्स सकम्मुणा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2701]
- सूत्रकृतांग 1AR अपने पापकर्म से पीड़ित होते हुए इस संसार में तुम्हारी रक्षा के लिए माता-पिता-पुत्रवधु, पत्नी, भाई और सगे पुत्र आदि कोई भी समर्थ नहीं है। 373. जिनाज्ञानुसार धर्माचरण . निम्ममो निरहंकारो, चरे भिक्खू जिणाहितं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2701]
- सूत्रकृतांग - 10 ममता और अहंकार रहित होता हुआ भिक्षु जिनाज्ञानुसार धर्म का आचरण करें। 374. न आरम्भ, न परिग्रह मणसाकायवक्केणं णारंभी ण परिग्गही ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2701]
- सूत्रकृतांग - IAN . मन वचन और काया से जीवनिकाय का न तो आरम्भ करें और न ही परिग्रह करे। 375. परिग्रह वैर परिग्गहे निविट्ठाणं वेरं तेर्सि पवड्डइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2701] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 151
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