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359. जीव अनाशातना णो अण्णाइं पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताई आसादेज्जा।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2693]
- आचारांग - 1/8/5/197 अन्य किसी भी प्राणी, भूत, जीव या सत्त्व का निरादर मत करो। 360. धर्मोपदेश-दृष्टि
णो अन्नस्सहेडं धम्ममाइक्खेज्जा।। णो पाणस्स हेडं, धम्ममाइक्खेज्जा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2694]
- सबकतांग 2MM3. खाने-पीने की लालसा से किसी को धर्म का उपदेश नहीं करना चाहिए। अपने प्राणों की लालसा से भी धर्मोपदेश नहीं देना चाहिए । 361. कर्म-निर्जरा
अगिलाए धम्ममाइक्खेज्जा, नन्नत्थ कम्मनिज्जखाए धम्ममाइक्खेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2694]
- सूत्रकृतांग 2403 साधक बिना किसी भौतिक इच्छा के प्रशान्त भाव से एकमात्र कर्म-निर्जरा के लिए धर्म का उपदेश करे । 362. विधा-धर्मपरीक्षक .
बालः पश्यति लिङ्गं, मध्यमाबुद्धिर्विचारयंति वृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयलेन ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2694] . - षोडशकप्रकरण 12
धर्मपरीक्षक तीन प्रकार के होते हैं-(१) बाल, (२) मध्यम और (३) पण्डित।बाल परीक्षक मुख्यरूपसे बाह्याकार (वेष) को देखता है ।मध्यम परीक्षक मुख्यरूपसे आचार को देखता है और पण्डित परीक्षक आगम तत्त्व को ही देखता है; क्योंकि धर्म-अधर्म की व्यवस्था आगम से होती है। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4. 147