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220. सन्तोष, परमसुख संतोषादनुत्तमं सुख-लाभः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2226 ]
- पातंजल योगदर्शन 2/43 . सन्तोष से सर्वोत्तम सुख का लाभ होता है। 221. साधक-चिन्तन
दुःखरूपो भवः सर्व, उच्छेदोऽस्य कुतः कथम् ? चित्रा सतां प्रवृत्तिश्च, साशेषा ज्ञायते कथम् ? ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2227]
- योगदृष्टि समुच्चय 47 यह सारा संसार दु:ख रूप है । इसका उच्छेद किलप्रकार हो ? सत्पुरुषों की विविधप्रकार की आश्चर्यकारी सत्प्रवृत्तियों का ज्ञान कैसे हो ? साधक ऐसा सात्त्विक चिन्तन लिए रहता है । 222. परमतृप्त मुनि
पीत्वा ज्ञानामृतं भुक्त्वा, क्रिया सुरलता फलम् । साम्य ताम्बुलमास्वाद्य, तृप्तिं यान्ति परां मुनिः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2241]
- ज्ञानसार 10 ज्ञानामृत का पानकर क्रिया रूपी कल्पवृक्ष के फल खाकर और समता रूपी ताम्बूल का आस्वादन कर मुनि परमतृप्ति का अनुभव करता है। 223. अतीन्द्रिय तृप्ति
या शान्तैकरसास्वादाद् भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया । सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा, षड्रसास्वादनादपि ॥ .
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2241]
- ज्ञानसार 103 शान्त-वैराग्य रस का आस्वादन करने से जो अतीन्द्रिय तृप्ति होती है, वह रसनेन्द्रिय के माध्यम से षट्-रस भोजन का स्वाद लेने से भी नहीं हो सकती।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 113 )
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