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यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य परमात्म-प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशुद्ध निरूपाधिक प्रेम है। इसप्रकार, विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्मब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता है।
विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानव-मानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम-पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह-ईश्वर, रूद्र-शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है । एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय-दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है -
'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा । सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥ ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ॥
अल्लाह आतम आपहि देखो, राम आतम रमनारा । . कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे ॥1 विश्वपूज्य के इस पद की तुलना संत आनंदघन के पद से की जा सकती है।
यह सच है कि जिसे परमतत्त्व की अनुभूति हो जाती है, वह संकीर्णता के दायरे में आबद्ध नहीं रह सकता । उसके लिए रामकृष्ण, शंकर-गिरीश, भूतेश्वर, गोविन्द, विष्णु, ऋषभदेव और महादेव
1. जिन भक्ति मंजषा भाग - 1 प.p 2. 'राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री।
पारसनाथ कही कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप रो। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद स्मै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री । करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री॥ परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री । इहविध साध्यो आप आनन्दघन, चेतनमय नि:कर्मरी ॥' आनंदघन ग्रन्थावली, पद ६५ . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3.52