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अतः कर्मवाच्य में कर्त्ता में तृतीया और कर्म और कृदन्त में सप्तमी होती है । कर्तृवाच्य में कर्त्ता और कृदन्त में सप्तमी होती है ।
द्वितीय और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी भी हो जाती है । जैसे -
(i) हउं नयरि/नयरे (7/1) न जाउं / आदि (मैं नगर को में नहीं जाता हूँ।) (द्वितीया के स्थान पर सप्तमी )
(ii) तहिं तीसु (7/2) पुहइ / पुहई (1/1) अलंकिआ / आदि (उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई।) (तृतीया के स्थान पर सप्तमी)
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पंचमी के स्थान पर कभी-कभी सप्तमी पाई जाती है । जैसे - अन्तेउरि / अन्तेउरे (7/1 ) रमिउ ( संकृ) राया ( 1/1) आगउ/ आदि (अन्तःपुर से रमण करके राजा आ गया | ) ( यहाँ पंचमी के स्थान पर सप्तमी हुई।)
फेंकने अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी होती है । जैसे - सो बालु (2/1) जले/जलि (7/1) खिवइ ( वह बालक को जल में फेंकता है ।)
अभ्यास
1. राजा आसन पर बैठा । 2. वह घर में रहता है । 3. क्रोध के शान्त होने पर दया होती है। 4. कुशील के नष्ट होने पर शील प्रकट होता है । 5. आगमों को जानकर तुम्हारे लिए सत्य कहा गया है। 6. अनुचरों के साथ बातचीत करके वह गया। 7. विषय से उदासीन चित्त योगी होता है ।
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अपभ्रंश व्याकरण: सन्धि- - समास - कारक (53)
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