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________________ एवं दाणिं एव ( इसप्रकार ) > दाणि (इस समय ) (iii) तृतीय स्वर पर अनुस्वार का लोप : इयाणिं > इयाणि (इस समय ) 6 ) अव्यय - सन्धि : 'अव्यय पदों में सन्धिकार्य करने को अव्यय सन्धि कहा गया है। यद्यपि यह सन्धि भी स्वर सन्धि के अन्तर्गत ही है, तो भी विस्तार से विचार करने के लिए इस सन्धि का पृथक् उल्लेख किया गया है । ' (i) किसी भी पद के बाद आये हुए अपि/अवि अव्यय के 'अ' का विकल्प से लोप होता है (हेम - 1/41 ) जैसे क्रेण + अपि / अवि केणपि/केणवि अथवा केणापि /केणावि किं + अपि/अवि किंपि / किंवि अथवा किमपि / किमवि (ii) किसी भी पद के बाद में रहने वाले इति अव्यय के 'इ' का लोप हो जाता है । (हेम - 1 /42 ) जैसे - किं + इति = किंति जुत्तं + इति = जुत्तंति (ii) यदि स्वरान्त पद के बाद 'इति' अव्यय आ जाए तो उपर्युक्त नियम से इको लोप कर देने पर ति का द्वित्व त्ति हो जाता है। (हेम - 1/42 ) जैसे - तहा + इति = तहात्ति > तहत्ति (संयुक्त अक्षर आगे आने के कारण हा > ह हो जाता है) पुरिसो + इति पुरिसोत्ति पुरिसुति (संयुक्त अक्षर आगे आने के कारण हो जाता है) = (iv) सर्वनामों से परे अव्ययों के आदि स्वर का विकल्प से लोप हो जाता है, ( हेम - 1 /40 ) जैसे - Jain Education International अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (6) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002301
Book TitleApbhramsa Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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