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यह छह खण्डों में विभक्त हैं। इसलिए इसे षट्खण्डागम कहा जाता है। दिगंबर परंपरा में यह आगमों के रूप में मान्य है।१०७ षट्खण्डागम पर व्याख्या साहित्य
षटखण्डागम दिगंबर परंपरा में सर्वमान्य ग्रंथ है। समय समय पर अनेक विद्वानों ने इन पर टीकायें लिखी। लगभग दूसरी शताब्दी में आचार्य कुंदकुंद ने इस पर परिकर्म नामक टीका की रचना की। . तीसरी शताब्दी में आचार्य श्यामकुंड ने पद्धति नामक टीका लिखी। चौथी शताब्दी में आचार्य तुंबूलूर ने चूडामणि नामक टीका रची। पांचवी शताब्दी में श्रीसमंतभद्र स्वामी ने टीका की रचना की। यह क्रम आगे भी चलता रहा। छट्ठी शताब्दी में बप्पदेव गुरु ने व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक टीका लिखी। ये बडे दुःख का विषय है कि ये सभी टीकायें लुप्त हो गई हैं। इनमें से इस समय कोई भी टीका प्राप्त नहीं है । केवल उनका उल्लेख हुआ है।
धवलाकी रचना
षट्खण्डागम पर आचार्य वीरसेन द्वारा रचित धवला टीका बहुत प्रसिद्ध है। वह इस समय उपलब्ध है। वीरसेन के गुरु का नाम आचार्य नंदी था। इनके शिष्य जिनसेन थे जिन्होंने आदिपुराण की रचना की।
धवला टीका चूर्णियों की तरह संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। यह 'बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण है। इसकी प्रशस्ति में टीकाकार ने लिखा है कि- यह सन् ८१६ में इस टीका का लेखन संपन्न हुआ। धवलाकार आचार्य वीरसेन बहुश्रुत विद्वान थे। टीका के अध्ययन से पता चलता है कि, उन्होंने दिगंबर तथा श्वेतांबर के आचार्य द्वारा लिखे गये साहित्य का गहन अध्ययन किया था। षट्खण्डागम में निरूपित कर्म सिद्धांत आदि विविध विषयों का अत्यंत सूक्ष्म गंभीर और विस्तृत विश्लेषण है। कषायपाहुड (कषायप्राभृत)
गिरनार पर्वत की चंद्रगुफा में ध्यान करने वाले आचार्य धरसेन के समय के आसपास गुणधर नामक एक और आचार्य हुए। उनको भी द्वादशांगी श्रुतका कुछ ज्ञान था। उन्होंने कषायपाहुड के नाम से दूसरे सिद्धांत ग्रंथ की रचना की। . आचार्य वीरसेन ने इस पर भी टीका लिखना शुरु किया। किंतु २०,००० (बीस हजार) श्लोक प्रमाण टीका ही लिख पाये थे कि- इसी बीच में दिवंगत हो गये। उनके