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________________ 364 द्वितीय प्रकरण में कर्म के अस्तित्व के विषय में प्रकाश डाला है। इसमें इन्द्रभूति गौतम की आत्मा विषयक शंका और उसका निवारण, ज्ञानगुण के द्वारा आत्मा का अस्तित्व, शरीरादि भोक्ता के रूप में आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि, परलोक के रूप में आत्मा की सिद्धि, उपादान कारणों के रूप में आत्मा की सिद्धि, आगम प्रमाण से आत्मा का अस्तित्व, आत्मा का असाधारण गुण चैतन्य, जहाँ कर्म वहाँ संसार, संसारी दशा का मुख्य कारण कर्म इत्यादि विविध दृष्टि-कोणों से विश्लेषण किया गया है। · कर्म के आवरणों के निरोध मूलक संवर के लिए जिन प्रबल आत्म परिणामों की आवश्यकता होती है वह तप के द्वारा, ध्यान के द्वारा, अभ्यास द्वारा, कर्मक्षय किया जाता है। पुन: पुन: संसार सागर में परिभ्रमण करानेवाला कर्मप्रवाह अवरुद्ध हो जाता है। जो आध्यात्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। चिरकाल से लिप्त कर्ममल धुलता जाता है, • यह दूसरी आध्यात्मिक उपलब्धि है जिसका उल्लेख आगमों में आगमगत अनुयोगों में तथा कर्मग्रन्थों में हुआ है इन दोंनो आध्यात्मिक उपलब्धियों से यह परमोत्कृष्ट परिणाम प्रस्फुटित होता है। जिसके लिए जीव अनंतकाल से व्याकुल है। दार्शनिक भाषा में जीव को संसार परिभ्रमण और कर्मों से मुक्ति/मोक्ष प्राप्त करना इससे बढकर इस त्रैलोक्य में दूसरी कोई उपलब्धि नहीं है, कर्मक्षय का यह महत्तम लक्ष्य है। कर्म अस्तित्व का मूलाधार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म क्यों माने? पूर्वजन्म के समय शरीर नष्ट होता है आत्मा नहीं, प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा पूर्वजन्म का वृत्तांत, प्रत्यक्ष ज्ञानियों और भारतीय मनीषियों द्वारा पुनर्जन्मकी सिद्धि, ऋग्वेद में कर्म और पुनर्जन्म का संकेत, उपनिषद में कर्म और पुनर्जन्म का उल्लेख, भगवत्गीता में कर्म और पुनर्जन्म का उल्लेख, बौद्ध दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म, सांख्यदर्शन में कर्म और पुनर्जन्म योग दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म, पूर्व जन्म के वैर-विरोध की स्मृति से पूर्वजन्म की सिद्धि, पाश्चात्य ग्रंथों में पुनर्जन्म की सिद्धि आदि अनेक दृष्टियों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का विस्तृत विश्लेषण यहाँ किया गया है। कर्म के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए आत्मा का अस्तित्व सिद्ध किया ___ इसका समाधान यह है कि जैनदर्शन आदि जितने भी आस्तिक दर्शन हैं उन्होंने कर्म को आत्मा के द्वारा कर्ता माना है। आत्मा को ही कर्मों का कर्ता, फल भोक्ता, क्षय कर्ता एवं विचित्रताओं व विलक्षणताओं का मूल कारण माना है। कर्मों का निरोध एवं क्षय करने का पुरुषार्थ भी आत्मा ही करती है। अत: कर्म का क्षय स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करने से पूर्व आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध करना अनिवार्य समझा। । पूर्वजन्म और पुनर्जन्म होने के साथ ही आत्मा और कर्म का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। कुछ धर्मसंप्रदाय आत्मा को मानते हुए भी उसका पूर्वजन्म तथा पुनर्जन्म नहीं मानते।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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