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. जिनका दर्शन शुद्ध है, वही शुद्ध है और उसे ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। दर्शन विहीन आत्मा मोक्ष मंजिल तक नहीं पहुँच सकती। सम्यग्दर्शन पापरूपी वृक्ष को समाप्त करने के लिए एक कुल्हाडी है। सम्यग्दर्शन यह महान रत्न है, सभी जीवों का आभूषण है साथ ही मोक्षप्राप्ति में सहायक मूल है।२८२
जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है, वह किसी भी प्रकार का पाप नहीं करता।२८३ मानवता का सार ज्ञान है। ज्ञान का सार सम्यग्दर्शन है।२८४ आत्मा को अज्ञानरूपी अंधकार से दूर कर आत्मभाव के आलोक में आलोकित विवेकयुक्त दृष्टि ही सम्यग्दर्शन है। दूसरे शब्दों में तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। व्यावहारिक दृष्टि से तीर्थंकर (जिनेश्वर भगवान) की वाणी में, जिसका दृढ विश्वास है, वही सम्यग्दर्शी है।
सम्यग्दर्शन के अभाव में जो क्रियाएँ की जाती हैं, वे शरीर पर होने वाले फोडे के समान दुःखकारक और आत्महित के लिए व्यर्थ हैं। मिथ्यादृष्टि का तप केवल देह दण्ड है। मिथ्यादृष्टि का स्वाध्याय भी निष्फल है क्योंकि उनका ज्ञान कदाग्रह बन जाता है। उसका दान और शील भी निंदनीय होता है।२८५
ऐसा कहा जाता है कि- श्रीकृष्ण के पास सुदर्शन चक्र था, इसलिए वे सारे शत्रुओं को पराजित करके तीनों खंडों के अधिपति बने। इसी प्रकार यदि आत्मरूपी कृष्ण के पास सम्यग्दर्शनरूपी सुदर्शन चक्र होगा तो वह भी कषायरूपी शत्रुओं को पराजित करके तीनों लोक का स्वामी बन सकेगा। न्यायदर्शन ने तत्त्वज्ञान को 'सम्यग्दर्शन' कहा है। सांख्यदर्शन ने भेदज्ञान को सम्यग्दर्शन कहा है। योगदर्शन ने विवेक ख्याति को, बौद्ध दर्शन ने क्षणभंगुरता की और चार आर्यसत्यज्ञान को, गीता ने योग को सम्यग्दर्शन कहा है। इस पर से यह स्पष्ट होता है कि जैन संस्कृति के इस मौलिक तत्त्व को सभी विचारकों ने महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। सचमुच सम्यग्दर्शन आत्म उत्क्रांति का द्वार है।२८६ जैनदर्शन मनन और मीमांसा२८७ में भी यही बात कही है। सम्यक्ज्ञान
सम्यग्ज्ञान यह मोक्षमार्ग की दूसरी सीढी है। आत्मतत्त्व के स्वरूप का ज्ञान अथवा आत्म कल्याण के मार्ग को जान लेना 'सम्यग्ज्ञान' है। आत्मज्ञान के बिना सारी विद्वता व्यर्थ है। संसार के सारे क्लेश अज्ञान के कारण हैं। उस अज्ञान को दूर करने के लिए आत्मज्ञान
आवश्यक है और आत्मज्ञान प्राप्त करना ही वास्तविक मोक्ष है। २८८ . ज्ञान यह आत्मा का निजगुण है। ज्ञान से आत्मा भिन्न नहीं है, आत्मा और ज्ञान अभिन्न है।२८९ आत्मा में स्वभावत: अनंत ज्ञानशक्ति विद्यमान है, परंतु ज्ञानावरणीय कर्म के कारण वह पूर्ण प्रकाशित नहीं हो पाती। जैसे जैसे आवरण नष्ट होता है, वैसे वैसे ज्ञान