SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 335 विकल्प नहीं उठेंगे और आत्मा स्व-स्वरूप में पूर्णत: स्थिर होगी। इस अवस्था को जैन दर्शन में शैलेषी अवस्था कहा है। २७२ वहाँ केवलज्ञान ही शेष रहता है। निर्वाण होने पर आत्मा को स्वाभाविकरूप से ऊर्ध्वगमन स्थान प्राप्त होता है। २७३ जैन शास्त्र में सिद्धशिला तथा गीता से 'परमधाम' मोक्ष मुक्तिस्थान आदि नामों से संबोधित किया गया है। निर्वाण यह आत्मा की पूर्ण विकसित स्थिति है, इसमें कोई शंका नहीं है। इसलिए जीवन का अंतिम ध्येय और चरमप्राप्ति निर्वाण ही है। कर्मअंत जिसप्रकार बीज जल जाने के बाद पौधा उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज जल जाने पर संसाररूपी पौधा उत्पन्न नहीं होता।२७४ जिसने प्राप्त हुए इंधन को जला डाला है और जिसको नये इंधन की प्राप्ति नहीं होती है, ऐसी अग्नि अंतत: निर्वाण को पहुँचती है, अर्थात् बुझ जाती है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा सब कर्मों का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त करती है, मोक्ष हासिल करती है। २७५ . कर्मों से मुक्तजीव एक क्षण में उच्चलोक के अग्रभाग पर पहुँच जाता है, जैसे तुंबिका के ऊपर आठ बार मिट्टी का लेप किया हो और उसे पानी में डाल दिया जाये तो वह नीचे चली जाती है, किंतु ज्यों-ज्यों मिट्टी का लेप हटता जाये, वह पानी के स्तर से ऊँची आ जाती है, उसी प्रकार सिद्धों की गति को समझें।२७६ कर्मक्षय का फल : मोक्ष यात्री जब यात्रा के लिए निकलता है, तब अपने साथ मुख्यत: तीन वस्तुएँ लेता हैभोजन, कपडे और बिछाना। इन तीन वस्तुओं में से एक भी वस्तु की कमी होगी, तो उसकी यात्रा सुखरूप नहीं होगी, उसी प्रकार मोक्ष की यात्रा के लिए साधक को तीन बातों की आवश्यकता है, वे हैं- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनमें से एक भी बात नहीं होगी, तो साधनापथ शांतिपूर्ण नहीं हो सकेगा। साधना पथ पर आरूढ मुमुक्ष को इन तीनों अलौकिक रत्नों की आवश्यकता है। ___ हृदय, बुद्धि और शरीर के समान साधना के क्षेत्र में भी रत्नत्रय की आवश्यकता है। अपने जीवन में जिस प्रकार हृदय, बुद्धि और शरीर इन तीनों की अपने स्थान पर आवश्यकता है, उसी प्रकार साधनामय जीवन हृदय के द्वार साध्य सम्यग्दर्शन, बुद्धि के द्वारा साध्य सम्यग्ज्ञान और शरीर के सब अंगोंपांग द्वारा साध्य सम्यक्चारित्र की नितांत आवश्यकता है। एक का भी अभाव होगा तो नहीं चलेगा। अगर शरीर अस्वस्थ होगा तो बुद्धि और हृदय में गडबडी होगी और वे अच्छी तरह से काम नहीं कर सकेंगे। अगर बुद्धि में विकार
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy