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________________ 333 कर्मों का सर्वथा क्षय द्रव्यमोक्ष है । और उन कर्मों के क्षय होने के कारण रूप जो आत्मा के परिणाम यानि संवर भाव (कर्मों को रोकना) कर्मों की अबंधकता शैलेषीभाव अर्थात् आत्मा की निश्चल अवस्था एवं शुक्लध्यान ही भावमोक्ष है। सिद्धत्व परिणति भावमोक्ष है । २५७ पंचास्तिकाय २५८ तत्त्वार्थराजवार्तिक २५९ और नवतत्त्वप्रकरणसार्थ२६० में भी यही बात आयी है। कर्मक्षय का क्रम आठ कर्मों को क्षय किये बिना कोई भी आत्मा सिद्ध नहीं हो सकती, इसलिए अनुक्रम से कौनसे कर्मों को कैसे क्षय करना है इसका विवेचन जैन आगमों में इस प्रकार है । जीव रागद्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त करके सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करता है और आठ प्रकार के कर्मों को क्षय करने की प्रक्रिया प्रारंभ करता है । २६१ सबसे पहले क्रमशः मोहनीय कर्मों की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय होता है। बाद में पाँच प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म नौ प्रकार के दर्शनावरणीय कर्म और पाँच प्रकार के अंतराय कर्म इन तीनों कर्मों की प्रकृतियों का एक ही समय में क्षय होता है । उसी समय परिपूर्ण आवरणरहित विशुद्ध और लोकालोक प्रकाशक ऐसा केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त होता है । २६२ केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति होती है और सिर्फ वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म और गोत्रकर्म ये चार अघाती कर्म शेष रहते हैं । २६३ इसके बाद आयु का जब अन्तर्मुहूर्त (दो घटिका अर्थात् ४८ मिनिट से कम ) जितना समय शेष रहता है, तब मन वचन काया के स्थूल व्यापार का निरोध करके केवलज्ञानी शुक्लध्यान में स्थित होते हैं, बाद में वे मन, वचन एवं काया के सूक्ष्म व्यापार और श्वासोच्छ्रवास का निरोध करते हैं । उसके बाद पाँच ह्रस्व अक्षरों का अ, आ, इ, ई, उ का उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने समय तक शैलेषी अवस्था में स्थित हो जाते हैं। शेष आयुष्य कर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म एवं वेदनीयकर्म एक ही समय में नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जाते है । और सब दुःखों का अंत करते हैं । २६४ मोक्ष : समीक्षा विविध दार्शनिक ग्रंथों और शास्त्रों में निर्वाण को ही मुक्ति,, सिद्धि, परमात्मलीनता, अनंत की प्राप्ति, अहंशून्यता आदि विविध नामों से निर्देशित किया गया है । 'निर्वाण' का शब्दश: अर्थ जिसमें से वायु (वात) निकल गई है। जिस प्रकार ऑक्सीजन नामक वायु के अभाव में दीप का बुझ जाना याने दीप का निर्वाण है, उसी प्रकार आत्मा के विकारों का समाप्त हो जाना ही आत्मा का निर्वाण है। अगर दीप पर किसी ने फूँक मारी तो दीप की
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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