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________________ 299 ५) अन्यदृष्टि प्रशंसा - मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, तप आदि के बारे में 'ये अच्छे हैं ऐसी भावना रखना' अन्यदृष्टिप्रशंसा है। १०४ तत्त्वार्थसार१०५ में भी यही बात है। गुणसहित सम्यग्दर्शन से जो युक्त हैं, वे संसार में रहकर जल कमलवत् निर्लिप्त हैं। जिस जीवात्मा को सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ है वह एक दिन निश्चित मोक्ष मंजिल तक पहुँच सकता है। सम्यक्त्व के भेद मिथ्यात्व मोहनीय कर्मों का अवरोध क्रमश: उपशम, क्षयोपशम और क्षयरूप से होता है। इसलिए सम्यक्त्व के भी क्रमश: औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व ये तीन भेद होते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ अर्थात् अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शन मोह की तीन प्रकृतियाँ सम्यक्त्वमिथ्यात्व, मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, कुल सात प्रकृतियों का उपशम होने पर आत्मा की जो तत्त्व रुचि होती है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - अनंतानुबंधी कषाय और उदय प्राप्त मिथ्यात्व का क्षय तथा अनुदयप्राप्त मिथ्यात्व का उपशम करते समय जीव की जो तत्त्वरुचि होती है, उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व सम्यक्त्व घाती, अनंतानुबधी चतुष्क याने (क्रोध, मान, माया और लोभ) तथा दर्शन मोहत्रिक (सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय) इन सात प्रकृतियों के क्षय से होने वाली जीव की तत्त्वरुचियाँ क्षायिक सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के ऊपर के भेद जीव की अपेक्षा से है, सम्यक्त्व की अपेक्षा से नहीं है। तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक्त्व का सही लक्षण है। सम्यक्त्व की प्राप्ति से ही आत्मकल्याण का मार्ग सुलभ होता है। विरति . कर्म के आगमन का जो दूसरा कारण है, वह है हिंसा आदि पाप कर्मों में लीन होना। उन पाप कर्मों से विरत होना अर्थात् उनका त्याग करना विरति व्रत है। पाप के त्याग से कर्म का आगमन रुकता है, इसलिए विरति को संवर भी कहते हैं। जीवन में व्रतों का महत्त्व श्वासोच्छवास के समान है। जिस प्रकार श्वासोच्छवाससे जीवित प्राणी पहचाना जाता है,
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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