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भरा हुआ है। आस्रव रूपी झरनों से उसमें रातदिन कर्मरूपी पानी प्रवेश करता ही रहता है। साधक तप आदि साधनों द्वारा कर्मरूपी पानी को बाहर फेंकने का प्रयत्न करता है, परंतु जब तक कर्मों के आगमन का दरवाजा हम बंद नहीं करते, तब तक कर्म - जल से भरा हुआ आत्म सरोवर खाली नहीं हो सकता । ९३
सम्यक्त्व का प्रकाश मोक्ष
सम्यक्त्व मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख कारण है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र्य नहीं हो सकता, परंतु सम्यक्त्वचारित्र के बिना हो सकता है, अर्थात् चारित्र के पहले सम्यक्त्व होना अत्यंत आवश्यक है। सम्यक्त्व के बिना ज्ञान भी अज्ञान की कोटि में गिना जाता है। सम्यक्ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र भी प्राप्त नहीं होता । चारित्र गुण के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं होती और मोक्ष के बिना निर्वाण प्राप्त नहीं होता । ९४ इतना ही नहीं संसाररूपी सागर में सम्यग्दर्शन द्वीप के समान विश्राम स्थान है। सम्यग्दृष्टि जीव को ही सुलभ बोधि प्राप्त होती है।
जिस प्रकार शरीर में समस्त अवयव हों, पर मस्तक न हो, तो शरीर सौंदर्य हीन लगेगा यही बात सम्यक्त्व के बारे में लागू होती है । मानव तप, त्याग, व्रत, नियम आदि करने भी अगर सम्यक्त्व न हो तो उनका कोई महत्त्व नहीं है । ९५
एक अंक के बिना शून्यों का कुछ भी अर्थ या कीमत नहीं है। नेत्र के बिना सूर्यप्रकाश • और सुवृष्टि के बिना खेत निरर्थक है, उसी प्रकार सुदृष्टि ही सम्यक्त्व है । सम्यग्दर्शन के बिना तप तथा जप की कुछ की कीमत या महत्त्व नहीं है। जो सम्यग्दर्शन से युक्त है, उसी का प और इन्द्रिय संयम सार्थक है उसी का ज्ञान सत्य है । सम्यग्दर्शन ही मिथ्यात्व का उच्छेद करने वाला है, इसलिए मुमुक्षु को सम्यग्दर्शन की आराधना करनी चाहिए । ९६
सम्यक्त्व का लक्षण
अनंत संसार में यदि सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कुछ तथ्य है तो वह आत्मा ही है। जैन दर्शन में सम्यक्त्व का लक्षण निश्चय और व्यवहार दो दृष्टियों से बताया है। निश्चयदृष्टि से सम्यग्दर्शन का लक्षण ‘बिना किसी उपाधि या उपचार के आत्मा की शुद्ध रुचि, श्रद्धा, प्रतीति और अनुभूति उपलब्ध करना निश्चय सम्यग्दर्शन है ।' व्यावहारिक दृष्टि से -
तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ।
जिन सर्वज्ञ भगवान ने जैसा स्वरूप बताया है, उसमें किसी भी प्रकार की शंका न करना, सम्यग्दर्शन है। यह आत्म-प्रतीति और दृढ श्रद्धान कैसे होता है ? इस प्रक्रिया को समझना है। आचारांगसूत्र में कहा है ' जो आत्मा है, वह विज्ञाता है, जो विज्ञाता है वह आत्मा है।' जानने की इस शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती है । ९७