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________________ 291 आकृष्ट रहती है। पदार्थ और धन के द्वारा होने वाले अनिष्ट परिणाम को जानने के बाद भी उस पदार्थों को छोड नहीं सकते। मूर्छा के कारण उसे भय सताता है। यह अविरति की मनोदशा है। ___ जब तक मन और इन्द्रियों को संयमित नहीं किया जाता, तब तक अविरति का पाप लगता है। कुछ लोग कहते हैं कि जो पाप हमने नहीं किया और जिन पदार्थों का हमने भोग नहीं किया, उनका पाप हमें क्यों लगता है? इसका उत्तर यह है कि इलेक्ट्रिक कनेक्शन जब तक पावर हाऊस से जुड़ा रहता है, तब तक मीटर बढता है, कनेक्शन कट करने पर मीटर नहीं बढता, उसी प्रकार पाप क्रिया का कनेक्शन न तोडा जाये तब तक पाप लगता ही है। भावनाशतक में४७ कहा है कि जब दरवाजा खुला रहता है तब कोई भी अंदर आ सकता है। इसी प्रकार जब तक त्याग नहीं किया जाता, आशा तृष्णारूपी दरवाजा बंद नहीं किया जाता तब तक पाप सीधा प्रवेश करता है, रुक नहीं सकता। ___ अविरति का त्याग करने से जीव को बहुत बडा लाभ मिलता है।४८ त्याग करने से पहला लाभ यह है कि जीव आत्रवों का निरोध करता है और कर्मागमन का द्वार बंद हो जाता है। दूसरा लाभ यह है कि शुद्ध चारित्र का पालन होता है, तीसरा लाभ यह है कि पाँच समिति, तीन गुप्ति रूप 'अष्ट प्रवचनमाता' की आराधना में हमेशा जागृति रहती है, जिससे सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर जीव विचरण करता है और रम जाता है। जिनेंद्र वर्णी ने भी यही बात दर्शाई है। विरति के अनेक लाभ हैं परंतु अविरति की स्थिति में उपयुक्त एक भी लाभ नहीं मिलता, आत्म कल्याण के लिए अविरति का त्याग करना चाहिए। अविरति के बारह भेद है। भावनायोग४९ और जैनेन्द्रसिद्धांतकोष में यही बताया गया है।५० प्रमाद आस्त्रव प्रमाद- जागरुकता का अभाव प्रमाद कहलाता है अर्थात् आत्म कल्याण और सत् प्रवृत्ति में उत्साह न होना अपितु अनादर होना प्रमाद है। मिथ्यात्व और अविरति के समान ही प्रमाद भी जीव का महान शत्रु है। इसलिए भगवान महावीर ने गौतम से कहा है, 'हे गोयम! समयं गोयम मा पमायए।' अर्थात् क्षणमात्र का भी प्रमाद न करें ।५१ धर्मक्रिया में प्रमाद करने से जिनका समय व्यर्थ चला जाता है, वे इस प्रमाद के दोषों के कारण संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। अगर जीव को इस संसार में परिभ्रमण नहीं करना है, तो विवेकशील आत्मा को अप्रमत्त रहना चाहिए। जो मानव प्रमाद करता है वह अपना समय व्यर्थ गवाता है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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