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________________ 254 लिया उसने सब कुछ जीत लिया।८६ यद्यपि कर्म महाशक्तिरूप होते हुए भी पुरुषार्थी जागृत आत्मा के आगे कर्म उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। अत: विजयी होने का श्रेय अनंत आत्मा को है। कर्म मूर्तरूप या अमूर्त आत्मा गुणरूप ___ कर्म शब्द इतना गहन और जटिल है कि, उसका यथार्थ रूप और स्वरूप सहसा हृदयंगम नहीं हो सकता। वैसे तो जन जीवन के मन, वचन और काय पर 'कर्म' शब्द चढा हुआ है। भारत के सभी आस्तिक दर्शनों ने 'कर्म' शब्द पर अपने-अपने ढंग से विचार प्रस्तुत किये हैं। परंतु, पूर्ण तटस्थता एवं निष्पक्षता के साथ कहा जा सकता है कि, 'कर्म' के रूप और स्वरूप पर जितनी गहराई और वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषण जैन दर्शन ने किया है, उतना अन्य दर्शनों में नहीं मिलता।८७ कर्म को मूर्त रूप न मानने का क्या कारण? भौतिकवादी तथा चार्वाक आदि प्रत्यक्षवादी दर्शन अपनी अदूरदर्शिता के कारण अथवा केवल बाह्यदर्शिता, प्रत्यक्षदर्शिता को लेकर कर्म के रूप और स्वरूप को मानना तो दूर रहा, कर्म के अस्तित्व तक को मानने से इन्कार करते हैं। 'कर्म इन चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देते, कर्म का कोई रूप या चिन्ह उन्हें इन स्थूल आँखों से दृष्टिगोचर नहीं होता, किंतु वे कुछ शब्द या मंत्र अदृश्य होने पर भी उसके प्रभाव या कार्य को जानकर उसे तो प्रत्यक्षवत् मान लेते हैं।' विद्युत् तरंगे स्थूल आँखों से न दिखाई देने पर भी भौतिक विज्ञानी उसके अस्तित्व और स्वरूप को मान लेते हैं। वर्तमान में तो वायरलेस, टेलिविजन, टेलीप्रिंटर, टेलीफोन आदि समस्त दूरसंचार प्रणालियाँ अदृश्य एवं अव्यक्त होते हुए उनके द्वारा होने वाले कार्यों को देखकर उनके अस्तित्व और स्वरूप को मानते हैं फिर सारा प्राणिजगत् कर्म के द्वारा संचालित कार्य प्रत्यक्ष दृश्यमान होने पर भी कर्म को मूर्त-पुद्गल रूप भौतिक रूप, प्रत्यक्षवत् न मानने का क्या कारण ? गणधरवाद में कर्म मूर्त है या अमूर्त ? गणधरवाद में भावी गणधर अग्निभूति ने भगवान महावीर के समक्ष यह प्रश्न पूछा है कि, 'कर्म अदृष्ट है- चर्मचक्षुओं द्वारा दिखाई नहीं देता, ऐसे अदृष्ट फल वाला कर्म क्यों माना जाए?' इसका समाधान बताते हुए भगवान महावीर ने कहा- 'कृषि व्यापार आदि क्रियाओं का फल अदृष्ट है, फिर भी लोग करते हैं और उन्हें उनका फल अवश्य मिलता है। जो लोग अधर्म को अदृष्ट मानकर अशुभ क्रियाएँ करते हैं, उन्हें उनका फल (वे चाहें या न चाहें) मिले बिना नहीं रहता।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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