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________________ 242 मरता है। आयुष्य कर्म जब तक पूर्ण नहीं होता, तब तक न तो उसकी मृत्यु होती है, न ही उसका नया जन्म। जन्म मृत्यु दोनों ही कर्माधीन हैं। आयुष्य कर्म की तुलना कर्ममर्मज्ञों ने एक बंदी से की है, जिसके पैरों में बेडियाँ पडी हैं। सांसारिक जीव कर्मों की गिरफ्त में कैद तो है ही फिर उसके पैरों में आयुष्य कर्म बेडी डालकर उसे सर्वथा परतंत्र बना देता है।२५ नामकर्म नामकर्म को चित्रकार की उपमा दी है। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र बनाता है।२६ उसी प्रकार नामकर्म संसार में स्थित ८४ लाख प्रकार के जीव योनिगत जीवों के विविध चित्र-विचित्र शरीरों और उनसे संबंधित अंगोपांग की रचना करता है। वही मस्तिष्क, मन, बुद्धि, चित्त तथा हाथ, पैर, पेट, जीभ, कान, नाक आदि अंगोपांगों का निर्माण उस-उस जीव के कर्मानुसार करता है। जीव का शरीर आत्माधीन नहीं है वह आत्मा की अपनी रचना नहीं है। आत्मा अपना मन चाहा शरीर नहीं बना सकती। शरीर का सृजन तथा शरीर से संबंधित इन्द्रियाँ अंगोपांग मन तथा उसकी आकृति, संस्थान, मजबूती तथा शरीर से संलग्न इन्द्रिय विषय तथा मन से संबंध यश-अपयश, सौभाग्य-दुर्भाग्य आदि सबकी रचना नामकर्म के आधीन है। धवला२७ में कहा गया है- नाम कर्मोदय से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। तथा कर्मों की विचित्रता से ही जीव के आत्म प्रदेशों का संघटन का विच्छेद होता है। द्रव्यसंग्रह२८ (टीका) में कहा गया है- जीव प्रदेशों का विस्तार कर्माधीन है, स्वाभाविक नहीं। तत्त्वार्थसार२९ में बताया गया है कि, ऊर्ध्वगमन के अतिरिक्त अन्यत्र गमन रूप क्रिया कर्म के प्रतिघात से तथा निज प्रयोग से समझनी चाहिए। ___ नाम कर्म इतना शक्तिशाली है कि, कोई भी जीव उसकी रचना का प्रतिवाद नहीं कर सकता। उसके निर्माण के अधीन परतंत्र होकर उसे शरीर रूपी कारागार में रहना पडता है। अत: जीवों के शरीर और उससे संबंध सारी रचना नामकर्म के अधीन है। कोई भी जीव इस विषय में स्वतंत्र नहीं है। गोत्रकर्म गोत्रकर्म के साथ मानव की सम्मानीयता, असम्मानीयता जुडी हुई है। गोत्रकर्म दो प्रकार का है- उच्चगोत्र और नीचगोत्र । गोत्रकर्म का अर्थ - किसी वर्ण या जाति आदि से नहीं है। उसका अर्थ- लोकदृष्टि में जीव के अच्छे-बुरे व्यवहार, आचरण और कार्य के अनुसार उच्च और नीच शब्दों से पुकारा जाता है। जो जीव अच्छा आचरण करता है, वह अभिजात कहलाता है और नीच कार्य करता है वह अनभिजात कहलाता है। यही उच्च
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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