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________________ 224 सद्धर्म के प्रति प्रशस्त राग __सद्धर्म का अर्थ है श्रुत एवं चारित्ररूप धर्म अथवा रत्नत्रयरूप धर्म या दशविध उत्तम धर्म के प्रति कल्याण कामना से प्रेरित होकर श्रद्धा भक्ति और अनुराग रखना। अप्रशस्त राग और उनके प्रकार . देव के प्रति प्रशस्त राग लाने के लिए तथा कथित कुदेव का त्याग, गुरु के प्रति प्रशस्त राग लाने के लिए तथा कथित कुगुरु का त्याग तथा धर्म के प्रति प्रशस्त राग लाने के लिए, कुधर्म का त्याग करना जरूरी है। वीतराग परमात्मा के प्रति प्रशस्त राग जगाने के लिए सांसारिक राग को क्षीण करना होगा। अप्रशस्त राग से कषायों की वृद्धि होती है। सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के प्रति प्रशस्त राग रखने से कषाय की मात्रा कम होती है। 'भगवती आराधना' २५० में जिन शासन प्रेमिओं के लिए चार प्रकार के अनुराग बताये हैं- भावानुराग, प्रेमानुराग, मज्जानुराग और धर्मानुराग। १) भावानुराग वीतराग परमात्मा कथित तत्त्वस्वरूप कभी असत्य नहीं होता, ऐसी श्रद्धा जहाँ हो उसे .'भावानुराग' कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान ने जो कहा है वही सत्य और निःशंकित है, ऐसी. तटस्थ श्रद्धा रखना भावानुराग है। २) प्रेमानुराग जिन पर प्रेम एवं वात्सल्य है उन्हें बार-बार तत्त्व एवं सन्मार्ग की महत्ता समझाकर सन्मार्ग पर संलग्न करना 'प्रेमानुराग' है। ३) मज्जानुराग जिनके रग-रग में, हड्डियों में और मज्जा-तंतु में सद्धर्म के प्रति राग है वे धर्म से विपरीत आचरण कभी नहीं करते। जिन्हें अहिंसादि धर्म प्राणों से प्रिय हो, उसे 'मज्जानुराग' कहते हैं। ४) धर्मानुराग साधार्मिकों के प्रति वात्सल्य, गुणीजनों के प्रति प्रेम और त्यागियों के प्रति भक्ति रखना 'धर्मानुराग' है। . राग-द्वेष रहित होकर वीतराग बनना सर्वोत्तम है, किन्तु वर्तमान में वीतरागता की प्राप्ति कठिन लगती है, फिर भी शनैः शनैः उस दिशा में क्रमश: गति प्रगति करने का पुरुषार्थ जारी रखना चाहिए। वीतरागता प्राप्त करने का लक्ष्य रखते हुए अप्रशस्त से बचकर ज्ञातादृष्टाभाव का सतत अभ्यास करती हुई आत्मा क्रमशः सही दिशा में अग्रसर हो तो एक दिन अवश्य वीतरागता प्राप्त कर सकती है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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