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________________ 191 होता है । सातावेदनीय कर्म का प्रभाव अधिकांश रूप से देवगति, मनुष्यगति में होता है । जबकि असातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त दुःख का अनुभव विशेषतः नरकगति और तिर्यंचगति में होता है। सुख और दुःख के संबंध में यहाँ एक बात अवश्य समझने योग्य है, सुख का अभिप्राय गति, स्थान, संयोग और परिस्थिति के अनुसार भिन्न देखा जाता है। एक प्राणी एक" वस्तु में सुख का अनुभव करता है, तो दूसरा प्राणी उसी की प्राप्ति में दुःखानुभाव एवं महसूस करता है। जैसे एक राजा को राजवैभव में सुखानुभाव होता है, परंतु एक त्यागी महात्मा को राजसी ठाठ-बाट में कोई रुचि नहीं होती, बल्कि जबरन देने पर उन्हें उसमें दुःखानुभाव होता है । सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म का उदय प्राणी की अनुभूति के आधार पर समझना चाहिए। संसार के समस्त प्राणियों के सभी प्रकार के दुःख दूर हों ऐसा मैत्री भाव रखने से आरोग्य तो मिलता ही है, साथ-साथ शारीरिक, मानसिक सुख देने वाला परिवार भी मिलता है। जो रुग्ण है, ग्लान है, दर्दी है, चाहे गृहस्थ हो या संत, मनुष्य हो या पशु, बालक हो या वृद्ध सबकी सेवा करने से उत्कृष्ट सातावेदनीय कर्म बंधता है। इस प्रकार जीवन की वाटिका में सुख के बीज बोने पर जीवन सुख शान्ति के सुगंधित पुष्पों से महकता रहेगा और दुःख के बीज बोने पर व्याकुलता, शोक, चिंता आदि असातावेदनीय कर्म के फल प्राप्त होगें । अतः सुख पाने की चाह हो तो दुःख के बीज कभी भी नहीं बोना चाहिए। सातावेदनीय कर्म के उदय काल में अनासक्तभाव बनाये रखना चाहिए और असातावेदनीय कर्म के उदय में अनाकूलता व समता भाव बनाये रखना ही वेदनीय कर्म के जानने, समझने का सार 1 मोहनीय कर्म का निरूपण आहित करके मूढ़ बना देता है, वह 'मोहनीय कर्म' है १०० जिस प्रकार मदिरा आदि नशीली वस्तुओं का सेवन करने से विवेक शक्ति तथा सोचने, विचारने . बुद्धि कुण्ठित एवं अवरुद्ध हो जाती है तथा जिस कर्म पुद्गल परमाणुओं से आत्मा की विवेक शक्ति, विचार शक्ति, आचार की कार्य क्षमता मंद और अवरुद्ध होकर दुष्कृत्य में प्रवृत्त होती है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं । आठ कर्मों में सर्वाधिक शक्तिशाली मोहनीय कर्म है। सात कर्म प्रजा है, तो मोहनीय कर्म राजा है। इसके प्रभाव से वीतरागता प्रकट नहीं हो पाती। शेष घाति कर्म हर एक शक्ति को आवृत करते हैं, जब कि मोहनीय कर्म आत्मा की अनेक प्रकार की
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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