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अनुभव भी होता है। यद्यपि प्राणियों की अनुभवधारा असंख्य है । तथापि कर्म मर्मज्ञों ने वेदनीय कर्म को सातावेदनीय और असातावेदनीय इन दो उत्तर प्रकृतियों में समाविष्ट कर दिया है।
वेदनीय कर्म का विस्तार
वेदनीय कर्म के दो भेद - १) सातावेदनीय, २) असातावेदनीय कर्म८६ उत्तराध्ययनसूत्र८७ और तत्त्वार्थसूत्र में भी यही बात आयी है ।
वेदनीय कर्म की सोलह प्रकृतियाँ - आठ सातावेदनीय की और आठ असातावेदनीय की इस प्रकार हैं। जब सातावेदनीय कर्म फलोन्मुख होता है, तब आठ प्रकार से आत्मा को फलभोग प्राप्त कराता है।
१) मनोज्ञशब्द - कर्णप्रिय मधुर स्वर, अपने-पराये लोगों से सुनने को मिलते हैं ।
२) मनोज्ञरूप - स्वपर का मनोज्ञ और सुंदर रूप देखने को मिलता है।
३) मनोज्ञगंध - मनोज्ञ सुगंध किसी भी निमित्त से प्राप्त होती है।
४) मनोज्ञरस- अत्यंत सरस, स्वादिष्ट मधुर एवं ताजा भोजनादि प्राप्त होता है।
५) मनोज्ञस्पर्श मन पसंद नरम, कोमल, सुखद, संवेदना उत्पन्न करने वाले स्पर्श प्राप्त
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होते हैं।
६) मन सौख्य (इष्ट सुख की उपलब्धि) - मनोज्ञ मानसिक अनुभूतियाँ, प्रसन्नता एवं चित्त की अनुकूलता मिलती है।
७) वचन सौख्य (सुखमय वचन की प्राप्ति) - प्रिय मधुर एवं आदरास्पद प्रशंसनीय वचन चारों ओर से सुनने को मिलते हैं।
८) काया (सौख्य) (शारीरिक सुख प्राप्ति) - शरीर की निरोगिता, सुख-सुविधा, स्वस्थता एवं सुखद शारीरिक संवेदनाएँ प्राप्त होती है । ८९ स्थानांगसूत्र १ जैनतत्त्वप्रकाश, ९१ जैनागम स्तोक संग्रह, ९२ में भी यही बात कही है।
संक्षेप में जिस कर्म के प्रभाव से आत्मा को मन पसंद विषयों की प्राप्ति और अनुकूलता प्राप्त होती है। उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं ।
असातावेदनीय कर्म का फलानुभाव
असातावेदनीय कर्म के प्रकोप से जीवन में जो भी घटना घटती है, वह दुःख, शोक, तनाव और क्लेश का कारण बनती है । असातावेदनीय कर्म जब उदय में आकर फलोन्मुख होता है, तब आठ प्रकार से आत्मा को फलभोग कराता है।