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दर्शनावरणीय कर्म बँधता है। इस निद्रा का उदय हिंसा के तीव्र परिणाम के कारण होता है । अतः हिंसा का तीव्र परिणाम आत्मा को अधोगति में ले जाता है।
चक्षुदर्शनावरण
चक्षु के द्वारा जो वस्तु के सामान्य धर्म का ग्रहण होता है, उसे 'चक्षुदर्शन' कहते हैं और चक्षु के द्वारा होने वाले उस सामान्य धर्म के ग्रहण को रोकने वाले कर्म को 'चक्षुदर्शनावरणीय' कहते हैं ।
अक्षुदर्शनावरण
चक्षुरिन्द्रिय को छोडकर शेष स्पर्शन आदि चारों इन्द्रियाँ और मन के द्वारा होने वाले अपने-अपने विषय भूत सामान्य धर्म के प्रतिभास को अचक्षुदर्शन कहते हैं। उसके आवरण करने वाले कर्म को अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं ।
अवधिदर्शनावरण
इन्द्रियाँ और मन की सहायता के बिना ही आत्मा को रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का बोध होने को 'अवधिदर्शन' कहते हैं । उसको आवृत करने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरणं कहते हैं।
केवलदर्शनावरण
संपूर्ण द्रव्यों के सामान्य धर्मों के अवबोध को केवलदर्शन एवं उसके आवरण करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं । ७८
निद्रा मनुष्य के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। कम निद्रा वाला अप्रमादी मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषार्थ कर सकता है। तीर्थंकर भगवंतों ने निद्रा दर्शनावरण कर्म का क्षयोपशम करने हेतु श्रेष्ठ उपाय अभिकथित किया है, अप्रमत्त होकर परमात्मा की भक्ति करना और श्रुतज्ञान की आराधना में सतत संलग्न रहना। जीवन में अप्रमत्त बनना हो तो सदैव जागृत रहना होगा । धर्मपुरुषार्थ में जागृति और तीव्रता आने पर दर्शनावरणीय कर्म का क्षय होता है । दर्शनावरणीय कर्म का प्रभाव
दर्शनावरणीय कर्म उदय में आने पर मन और इन्द्रियों से होने वाले घटपटादि पदार्थों सामान्य बोध कुण्ठित हो जाता है। इस कर्म के प्रभाव से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवों को जन्म से ही आँखें प्राप्त नहीं होती। इस कर्म के उदय आने पर चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की आँखें नष्ट हो जाती हैं, या उन्हें अत्यंत कम दिखाई देता है, मोतीबिंदु आता है या नेत्र रोग हो जाते हैं।