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________________ सभी सुविधाएँ प्राप्त हुई। गुरुणीमैया के आशीर्वाद से एवं सहकार्य से आदिनाथ स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ एवं महावीर प्रतिष्ठान श्रावकसंघ के सहकार्य से अभ्यास में मेरा उत्साह उत्तरोत्तर बढ़ता गया। विषय निश्चित होने के बाद सर्व प्रथम जैन आगम साहित्य में कर्म विषयक जो विवेचन आया है उसका संशोधन शुरु किया। उसमें अंग, उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक आदि आगम ग्रंथ और उसके आधार पर प्राकृत, संस्कृत तथा हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं में रचे हुए साहित्य का अध्ययन किया, उसमें से कुछ ग्रंथों के नाम निम्नलिखित हैं - ___ जैनों के युवाचार्य मधुकरमुनि संपादित आचारांग आदि ३२ आगम, आचार्य उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र, श्री बह्मदेवकृत बृहद्र्व्यसंग्रहटीका, आचार्य शिवार्यकृत भगवतीआराधना, उपाचार्य देवेन्द्रमुनिजी म.सा. कृत कर्मविज्ञान भाग १ ते ७ मरुधर केसरी पू. मिश्रीमलजी म.सा. कृत कर्मग्रंथ भाग- १ ते ६, क्षु. जिनेंद्रवर्णीकृत जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग- १ ते ४, मलयगिरिकृत कर्मप्रकृति, माधवाचार्यकृत सर्वदर्शन संग्रह, पुप्फभिक्खु का सुत्तागमे, पूज्यपादाचार्य की सर्वाथसिद्धि, भट्टाकलंकादेव का तत्त्वार्थ राजवार्तिक, युवाचार्य श्री मधुकरमुनि का कर्ममीमांसा, अमृतचंद्रसूरिकृत तत्त्वार्थसार, महासतीजी उज्ज्वलकुमारीजी का जीवन धर्म, पू. डॉ. धर्मशीलाजी म.सा. का नवतत्त्व (मराठी), दलसुखभाई मालवणीया का गणधरवाद, श्री. नेमिचंद्रचार्य सिद्धांतचक्रवर्तीकृत ‘गोम्मटसार' श्रीमद् कुंदकुंदाचार्य विरचित प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय एवं समयसार। ___ इसके अतिरिक्त अनेक आचार्य, मुनि, विद्वानों की रचनाओं का अनुसंधानात्मक दृष्टि से अध्ययन किया। कर्म के संबंध में जो जो सामग्री मुझे उपलब्ध हुई उसका यथास्थान संयोजित करने का मैंने प्रयत्न किया है। विद्या और साधना किसी भी धर्म या संप्रदाय की मर्यादा में बंधी हुई नही होती है। वह तो सर्वव्यापी सर्वग्राही और सर्व उपयोगी उपक्रम है। उसको विविध परंपरा से संलग्न ज्ञानीजन और साधकगण समृद्ध करते हैं। __जैन दर्शन अनेकान्तवाद पर आधारित समन्वयात्मक दर्शन है। इस दृष्टि से किसी भी प्रकार से सांप्रदायिकता का संकीर्ण भेद भाव न रखते हुए कर्मवाद और कर्मसिद्धांत पर जो आलेखन कार्य शुरु किया वह प्रस्तुत शोध प्रबंध के रूप में उपस्थित है। वह विषय व्यवस्थित प्रस्तुत करने की दृष्टि से इस शोध-प्रबंध में ७ प्रकरणों में विभक्त किया गया है। वे सात प्रकरण सात भयों को दूर करके और अष्ट कर्म को नष्ट करके साधक को उपयोगी होवें यही मंगल कामना है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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