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________________ विश्व के देशों में भारत एक ऐसा देश है, जिसकी अपनी विलक्षण विशेषताएँ हैं। अन्य देशों में जहाँ गौरव और महत्त्व उन लोगों का रहा, जिन्होंने विपुल वैभव और संपत्ति अर्जित की, उच्च-उच्चस्तर, सत्ता और अधिकार हस्तगत किया अधिक वैभव एवं विलासोपयोगी साज सामान का संग्रह किया किंतु इस देश में सर्वाधिक पूजा, प्रतिष्ठा और सम्मान उनका हुआ, जिन्होंने समस्त जागतिक संपत्ति, भोगोपभोगों के उपकरणों का परित्याग कर अकिंचनता का जीवन अपनाया, अपरिग्रह, संयम, तपश्चरण का और योग का मार्ग स्वीकार किया। भारतीय चिंतन धारा में भोग वासनामय जीवन को उपादेय नहीं माना। भोगों को जीवन की दुर्बलता स्वीकार किया गया है। भोगजनित सुखों के साथ दुःखों की परंपराएं जुड़ी रहती हैं। इसलिए यहाँ के ज्ञानियों ने ऐसे सुखों की खोज की, जो पर पदार्थ निरपेक्ष और आत्म सापेक्ष हैं। भारत का गौरवमय इतिहास उन ऋषि मुनियों, ज्ञानियों योगियों और साधु संतों का इतिहास है। जिन्होंने परम प्राप्ति की साधना में अपने को लगाया। साथ ही साथ जन जन को कल्याण का संदेश दिया। सदाचार, नीति, सच्चाई और सेवा के पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा दी। यह सब तभी फलित होता है, जब जीवन भोगोन्मुखता से आत्मोन्मुखता की ओर मुड़े। भगवान श्री महावीर स्वामी का उदात्त चिन्तन एवं तत्त्व दर्शन जीव मात्र के अभ्युदय एवं निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त करता है। यही वह परम पथ है, जिस पर चलकर मानव शांति और सुख की प्राप्ति कर सकता है। "ढाई अक्षर कर्म धर्म के, अन्तर तूं पहचान। एक देते है नरकगति, दुजा देत है मोक्ष धाम॥" कर्म और धर्म इन दोनों के ढाई अक्षर हैं लेकिन इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर है। कर्म यह जीव को नरक गति में ले जाता है और 'धर्म' यह मोक्ष मंजिल में पहुँचाता है। 'धर्म' और 'कर्म' अध्यात्म जगत् के शब्द अद्भुत हैं। जिन पर चैतन्य जगत् की समस्त क्रिया, प्रतिक्रिया आधारित है। सामान्यत: धर्म मनुष्य के मोक्ष का प्रतीक है, और कर्म बंधन का। बंधन और मुक्ति का ही समस्त खेल है। संसारी प्राणी कर्मबद्ध प्रवृत्ति करता है, सुख दुःख का अनुभव करता है, कर्म से मुक्त होने के लिए फिर धर्म का आचरण करता है, और मुक्ति की ओर कदम बढ़ाता है। मुझे यह प्रकट करते हुए बड़ा आत्म परितोष होता है कि मैंने लगभग बीस वर्ष पूर्व जैन
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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