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समाधिमरण या सल्लेखना
इसीप्रकार जब मरण का ही व्रत ले लिया और क्रमशः भोजनादि का त्याग करना भी आरंभ कर दिया तो क्या यह मरण की भावना नहीं है? यदि है तो फिर आप जीने की इच्छा को और मरने की इच्छा को अतिचार क्यों कहते हैं?
उत्तर - बहुत कुछ प्रयास करने के बाद जब आप इस निर्णय पर पहुँच गये कि अब बचना संभव नहीं है; तब तो आपने यह व्रत लिया है
और अब जीवन की चाह होगी तो चित्त विभक्त होगा। चित्त का विभक्त होना ठीक नहीं । विभक्तचित्त से किया गया कोई भी कार्य सफल नहीं होता। ___ इसीप्रकार अत्यधिक पीड़ा के कारण जल्दी मृत्यु की कामना करना भी सहज जीवन और सहज मरणव्रत की सहज स्वीकृति नहीं है । अतः इन्हें अतिचार कहा है। ___ यह अज्ञानी जगत स्त्री-पुत्र, माँ-बाप, भाई-बहिन आदि चेतन परिग्रह एवं रुपया-पैसा, मकान-जायजाद आदि अचेतन परिग्रह तथा मुख्य रूप से शरीर को अपना माने बैठा है, उक्त संयोगों में ही रचापचा है। उन्हें जोड़ने और उनकी रक्षा करने में लगा है।
यदि इनमें से एक व्यक्ति या एक वस्तु का वियोग हो जाता है तो भी यह आकुल-व्याकुल हो जाता है । मरण तो समस्त चेतन-अचेतन संयोगों के एक साथ वियोग का नाम है। अतः इस मरण का नाम सुनते ही अनन्त आकुल-व्याकुल हो जाना इस अज्ञानी जगत का सहज स्वरूप है। __इस अज्ञानी जगत को मृत्यु में अपना सर्वनाश दिखाई देता है; इसलिये वह इसका नाम सुनते ही आकुल-व्याकुल होने लगता है। ___इस अनित्य और अशरण जगत में इसे कोई शरण दिखाई नहीं देता। कोई ऐसा व्यक्ति दिखाई नहीं देता जो इसे मृत्यु से बचा ले।