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समाधिमरण या सल्लेखना
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आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार के छठवें अध्याय में सल्लेखना की चर्चा करने के उपरान्त सातवें अध्याय में ग्यारह प्रतिमाओं की बात करते हैं ।
सबकुछ मिलाकर ग्यारह प्रतिमायें और उनमें समागत बारह व्रतों के इर्द-गिर्द ही समाधिमरण (सल्लेखना) की चर्चा की जाती रही है।
इससे भी यह सिद्ध होता है कि यह मुख्यरूप से पंचमगुणस्थानवर्ती व्रती श्रावकों का व्रत है। साधु तो सदा समाधिस्थ ही रहते हैं; उनका सम्पूर्ण जीवन समाधिमय है और जिनका जीवन समाधिमय होता है; उनका मरण भी नियम से समाधिमय होता ही है।
समाधिमरण की चर्चा में माता-पिता, पत्नी - पुत्र आदि कुटुम्बीजनों से आज्ञा लेना, क्षमायाचना करना मुनिराजों के कैसे संभव है ? सभी कुटुम्बीजनों को संपत्ति बाँटने की बात भी कैसे संभव है; क्योंकि वे तो यह सब दीक्षा लेते समय ही कर चुके हैं।
अव्रती के जब कोई व्रत नहीं है तो फिर यह व्रत भी मुख्यरूप सें कैसे हो सकता है? सामान्यरूप से तो सभी ज्ञानी - अज्ञानी मृत्यु समय सावधानी की अपेक्षा रखते ही हैं और रखना भी चाहिये ।
आचार्य श्री अमितगति द्वारा रचित मरणकण्डिका नामक ग्रन्थ, आचार्य शिवार्य द्वारा प्राकृत भाषा में लिखी गई भगवती आराधना या मूल आराधना का संस्कृत रूपान्तर है । उसमें आचार्यदेव ने पाँच प्रकार के मरणों की चर्चा की है; जो इसप्रकार हैं -
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(१) बाल - बालमरण (२) बालमरण (३) बाल पण्डितमरण (४) पण्डितमरण और (५) पण्डित-पण्डितमरण ।
(१) मिथ्यादृष्टियों के मरण को बाल-बालमरण कहते हैं । (२) अविरत सम्यग्दृष्टियों के मरण को बालमरण कहते हैं ।