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अपाता का।
जावें तो परमात्मा के दर्शन हो ही जावेंगे, आत्मा के दर्शन हो ही जावेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। यही सब भूतकाल में अनन्त ऋषियों ने किया भी है, और हम सब आज भी कर सकते हैं; आवश्यकता है मात्र सम्यक् प्रयासों की।
फिर विज्ञान अपने विषय में कितना ही समृद्ध क्यों न हो; हमारे लिए, दार्शनिक मान्यताओं के लिए उसका क्या महत्त्व है ? उसके भरोसे हम अपने समृद्ध दार्शनिक ज्ञान को कैसे तिलांजलि दे सकते हैं ? ____धर्म-दर्शन व दार्शनिक मान्यतायें समृद्ध व अपने आप में परिपूर्ण हैं, जबकि विज्ञान अभी विकासशील अवस्था में है, वह सम्पूर्ण नहीं है। तब यदि विज्ञान चाहे तो अपनी मान्यताओं की पुष्टि के लिए धर्म व दर्शन की शरण में आ सकता है।
वैज्ञानिक क्या कहते हैं - यह जान लेने मात्र से कोई वैज्ञानिक नहीं बन जाता है, वैज्ञानिक बनने के लिए प्रयोगशाला में स्वयं परीक्षण करने पड़ते हैं। उसीप्रकार प्रयोगशाला में आत्मानुभव के परीक्षण करने होंगे।
धर्म पराश्रित क्रिया नहीं, वरन् स्वपरीक्षित साधना है, धर्म की परीक्षा के लिए हमें किसी अन्य की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं, वरन् सबकी शरण छोड़कर स्वयं अपने में सिमट जाने की आवश्यकता है। उसीप्रकार धर्म के, वीतराग-विज्ञान के वैज्ञानिक बनने के लिए हमें स्वयं अपनी आत्मा की प्रयोगशाला में आत्मानुभव के परीक्षण करने होंगे, ऐसा करने पर आत्मा-परमात्मा से संबंधित आचार्यों के कथनों की सत्यता हमारे समक्ष स्वयं ही स्पष्ट हो जायेगी और यही दृढ़ता भरी आस्था आत्महित के लिए कार्यकारी है।
-क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ?/६०