________________
पर यह हिचक व झिझक कबतक चलेगी ? आखिर कबतक ? न जाने कितने लोक लुभावन बहाने बनाकर मैं जीवन भर यह अन्तिम निर्णय लेने से बचता रहा; इसे एक और कल तक के लिए टालता रहा। पहले तो फिर भी आशा बनी ही रहती थी, कि एक और कल मेरे जीवन में आवेगा, एक सुहानी सुबह आवेगी ताजगी व स्फूर्ति से भरपूर । एक नया सूरज उगेगा। पर अब आज जैसे-जैसे एक-एक दिन व्यतीत होता जा रहा है, यह सम्भावना ही प्रबल होती जा रही है कि हो न हो यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन ही हो। हर दिन जब मैं ढलता हुआ सूरज देखता हूँ तो वितृष्णा से भर उठता हूँ, उसमें झलकता हुआ अपना बिम्ब दिखाई देता है, प्रतिपल क्षीण होता उसका तेज, अब मुझे स्वीकार नहीं होता; क्योंकि मैं भी तो प्रतिपल इसीतरह ढलता जा रहा हूँ। उस तेजहीन ढलते हुए सूरज कभी भरपूर निरख लेने की मेरी तृष्णा अब अत्यन्त बलवती हो गई है, हो न हो फिर कभी मेरे इस जीवन में तेजस्वी सूरज उगे या न उगे ।
जब मैं युवा था, तब तो एक बड़ी दुविधा मेरा रास्ता रोक लेती थी। एक ओर मेरा यह जीवन, घर-परिवार व उसकी ज्वलंत समस्यायें, जो स्पष्ट व प्रत्यक्ष थीं और दूसरी ओर अदृश्य आत्मा और उसका तथाकथित काल्पनिक भावी अनन्तकाल । तब मैं किसे सम्भालता व किसकी उपेक्षा करता। यदि मैं आत्मा को महत्त्व देने का मन बनाता, तो मेरा ही अन्तर्मन पुकार उठता कि काल्पनिक भविष्य के लिए अपने साक्षात् वर्तमान को दाव पर लगा देना चाहते हो तुम। और मैं तत्क्षण ही रुक जाता, भला मुझसे बेहतर यह कौन जान सकता है कि आत्मा के प्रति, स्वयं अपने प्रति मेरा यह सोच व व्यवहार मेरे मायाचार की पराकाष्ठा हैं। मैं स्वयं स्वयं पर ही प्रश्नचिह्न लगाता रहा, स्वयं के होने से, स्वयं के भविष्य से ही इन्कार करता रहा !
पर मेरी यह दुविधा तो बीते कल की बात है, तब तो मेरी वर्तमान मनुष्य पर्याय का 'विस्तृत वर्तमान' भी था व 'सपनों का भविष्य' भी और उसके लिए तो मैं क्या - क्या कर सकता था, क्या-क्या करना चाहिए था अन्तर्द्वन्द / 36
.