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बाद यदि कुछ थोड़ा-सा, उपेक्षित-सा खाली समय बचा रहा तो अगले भव को ध्यान में रखते हुए धर्म के नाम पर भी कुछ क्रियाकाण्ड कर लेते हैं, पर सचमुच हम आत्मा के भविष्य के बारे में बिल्कुल भी गम्भीर नहीं होते, जबकि वर्तमान जीवन में तनिक भी प्रतिकूलता हमें विचलित कर देती है व उसके इलाज के लिए हम कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। किसी से पूछने व प्रमाण मांगने की आवश्यकता ही क्या है ? हमारी यही वृत्ति दर्शाती है कि हमें आत्मा की अजर-अमरता का भरोसा नहीं है। न तो हमें अपनी (आत्मा की) अनादि-अनन्तता का भरोसा है और न ही पुण्य-पाप का। ___ हमें इस बात का पक्का भरोसा है कि मेरे बाद मेरे पुत्र-पौत्रादिक भी रहेंगे व धन-धान्यादिक भी और इसलिए हम अपने पुत्र-पौत्र-प्रपौत्रादिक के लिए धन सम्पत्ति को जुटाने में अपना जीवन खपा देते हैं, नीतिअनीति की परवाह न करते हुए और पुण्य-पाप से बेखबर रहकर भी।
हालांकि अपनी संतति को धन-दौलत दे देना भी हमारी चाहत नहीं, हमारी मजबूरी है; क्योंकि हम उसे अपने साथ ले जा नहीं सकते हैं। यदि ले जा सकते तो जरूर ले ही जाते, कुछ भी न छोड़ जाते। ____ यूँ कहने मात्र से शायद हम यह तथ्य स्वीकार न करें, पर हमारी प्रवृत्ति उक्त तथ्य की स्वयं साक्षी है। हम जबतक जीवित रहते हैं, तबतक अपनी समस्त सम्पत्ति व व्यवसाय पर स्वयं काबिज रहना चाहते हैं व मरने के बाद के लिए वसीयत बनाते हैं। यदि सचमुच हम उनके लिए ही सबकुछ करते तो क्या स्वेच्छा से अपने जीवनकाल में ही सबकुछ उन्हें न सौंप देते? ____ धन-दौलत तो हमारे साथ नहीं जाती, पर पुण्य-पाप जाते हैं; पर न तो हमें मृत्यु के बाद अपने अस्तित्व का भरोसा है और न ही पुण्य-पाप का ही। यदि होता तो हम वर्तमान की लाभ-हानि का विचार नहीं करते व पुण्य-पापादिक के बन्ध का विचार करके वर्तमान क्रियाकलाप करते और इसप्रकार हमारी जीवन प्रणाली वर्तमान जीवन प्रणाली से बिल्कुल भिन्न
अन्तईन्द/28 -