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हो गया था, पर एक सीजन तो बीच में छूट ही गया, मानो यौवन तो उसके आया ही नहीं और अभी जब समकित और सुरभित की जबानी सबाब पर थी, वह असमय ही बुढ़ाने लगा। बाल पक गये, चेहरा लटक गया व कमर झुकने लगी । न जाने ऐसे कौन से रोग ने आ घेरा कि यकायक वह बिखरने लगा। हालांकि न तो उसकी बीमारी के बारे में मालूम करना मुश्किल काम था और न ही बीमारी का इलाज करना; पर यह सब कौन करता? आखिर किसी के भी पास फालतू वक्त ही कहाँ था, कोई अपने जीवन की उपलब्धियों को भोगने में व्यस्त था तो किसी का कैरियर अपने सबाब पर था और कोई अपने जीवन की आधारशिला को मजबूत करने में जी-जान से जुटा हुआ था; ऐसे में उस बिखरते खण्डहर की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही किसे थी ? हाँ एक चिन्ता कभी - कभी जरूर हो जाया करती थी कि कहीं उसे कोई चेपी रोग तो नहीं है? कहीं ऐसा न हो----
15 मिनिट बचाने के लिए, लाइन में लगकर सिनेमा के टिकिट लेने की बजाय जिन्हें 10-20 टिकिट भी 100 रुपये प्रति टिकिट ब्लैक में लेना पोसाता हो, वे उसे लेकर कई दफा घण्टों तक म्यूनिसिपिल हॉस्पिटल आउट डोर की लाइन में खड़े रहते थे; क्योंकि आखिर उसका इलाज किसी प्राइबेट डॉक्टर से कैसे कराया जा सकता है ? उसकी फीस तो 100 रुपये हैन !
और एक दिन जब पानी सिर से ऊपर बढ़ने लगा तो परिवार के सभी सदस्यों की एक आवश्यक मीटिंग हुई, जिसमें आवाल- गोपाल सभी ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। उसके बिगड़ते स्वास्थ्य के प्रति अपनीअपनी चिन्ता व्यक्त की, तद्जनित दुष्प्रभावों का आकलन किया गया और फिर एक सर्वसम्मत निर्णय के तहत अगले ही दिन उसे उसके जीवन भर की सेवाओं के पुरस्कार स्वरूप बीस हजार रुपये नकद इनाम देकर बिना उसके गाँव का नाम व पता पूछे ही उसके गाँव जाने वाली बस में बिठा दिया गया। हाँ, इस बार उसके बैग की तलाशी भी नहीं ली गई थी । अन्तर्द्वन्द / 17