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खेल में होनेवाली जीत-हार ? खेल का उद्देश्य तो मात्र मनोरंजन ही था न? पर मैं खेल में भी ईमानदार न रह सका। हारना तो मुझे मंजूर ही न था, किसी भी कीमत पर; ईमान की कीमत पर भी नहीं। धिक्कार है मेरी उस हीनवृत्ति को, जो अपने ही प्रिय मित्रों की विजय मुस्कान बर्दाश्त न कर सकती थी। क्या मैं उस समय दोहरा आनन्द नहीं ले सकता था ? एक ओर खेल का आनन्द व दूसरी ओर स्वयं की विजय से प्रसन्न मित्रों की प्रसन्नता का आनंद? पर मेरा अहंकार तो हमेशा ही उन्हें मात्र पराजित ही देखना चाहता था। क्या इसी का नाम मित्रता है ? तब फिर शत्रुता किसे कहते हैं? क्या मैं मित्र बनकर अपने ही मित्रों से शत्रुवत व्यवहार नहीं करता रहा ? क्या यह जघन्य अपराध नहीं था ? क्या यह महापाप नहीं था और यह महापाप करके मैंने पाया क्या ? प्रतिपल जीत का षडयंत्र रचने की आकुलता ही न ?
क्या अभक्ष्यों के भक्षण बिना मेरा यह जीवन नहीं चल सकता था? क्या कमी थी? एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व पौष्टिक पदार्थ उपलब्ध थे भोजन के लिए, पर मुझे तो वही चाहिए थी आलू की चाट। और वह भी अज्ञानवश नहीं, बल्कि यह जानते हुए भी कि इसमें अनन्त निगोदिया जीवों का घात निहित है? ___आखिर क्या है भोजन की उपयोगिता और आवश्यकता ? किसे कहते हैं भोजन का आनन्द।
भोजन की आवश्यकता मात्र शरीर को स्वस्थ व कार्यक्षम बनाये रखने के लिए ही तो है; व इस उद्देश्य की पूर्ति तो सर्वप्रकार से दोषरहित भोजन से भी भलीभांति की जा सकती है और रही बात स्वाद की, तो ऐसा तो है नहीं कि मात्र अमुक वस्तु ही स्वादिष्ट होती है और अमुक नहीं। यह तो अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम स्वयं अपने लिए कैसा स्वाद विकसित करते हैं। लोक में बहुतायत से देखा जा सकता है कि एक व्यक्ति को एक वस्तु अत्यन्त पसन्द है व वही वस्तु दूसरे को बिल्कुल नहीं सुहाती। अरे ! विभिन्न व्यक्तियों की तो बात ही क्या ? एक ही व्यक्ति को
- अन्तर्द्वन्द/6