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तरंगवती
ततपश्चात् हे गृहस्वामिनी, मैं त्वरा से नहा लेने के बाद भोजन करके चेटी, धात्री एवं परिजनों के साथ छत पर चढ गई । वहाँ उत्तम शयन एवं आसन पर आराम करती हुई प्रियतम की बातों से मन को बहलाती मैं रात्रि के प्रथम प्रहर की प्रतीक्षा करने लगी ।
अल्प समय में चंद्ररूपी मथानी शरदऋतु के सौन्दर्य से मंडित गरानरूपी गागर में उतरकर उसमें रखे ज्योत्स्नारूपी मही का मथन करने लगी । उसे देख मेरे चित्त में अधिक घनिष्ठ एवं दुःसह विषाद छा गया और आरे की भाँति तीव्र काम मुझे सताने लगा ।
पद्मदेव से मिलने को जाने का निश्चय
कामविवश एवं दुःखार्त अवस्था के कारण मैं अतिशय व्याकुल हो गई और अपनी सखी से कहने लगी : सखी, इस प्रार्थना द्वारा मैं तुम्हारे पास प्राणभिक्षा की याचना करती हूँ। मैं सच कहती हूँ बहन, कुमुदबंधु चंद्र द्वारा अत्यंत, प्रबल बैरी बनकर कामदेव मुझे निष्कारण कष्ट दे रहा है। उसकी शत्रुता के कारण हे दूती तुम्हारे मीठे वचन भी झंझा के थपेडों से क्षुब्ध समुद्रजल के समान मेरे हृदय को स्वस्थ नहीं कर सकते ।
इसलिए सारसिका, काम द्वारा चारित्रभग्न ऐसी असती को, उसके दर्शन की प्यासी को तू जल्दी मुझे प्रियतम के आवास ले जाओ ।
अतः चेटीने मुझसे कहा : 'तुम्हारी यशस्वी कुलपरंपरा का तुम्हें जतन करना चाहिए। तुम ऐसा दुःसाहस मत करो और इस प्रकार उपहासपात्र मत बनो। वह तुम्हारे स्वाधीन है; उसने तुमको जीवनदान दिया ही है तो तुम अपयशभागी बनने की बात छोड दो । बडों को प्रसन्न करके तुम उसे प्राप्त कर सकोगी ।'
परंतु स्त्रीसहज अविचारिता एवं अविवेक के कारण और कामवेग से प्रेरित होकर मैं फिर चेटी से कहने लगी, 'संसार में जो उत्साहपूर्वक, दृढ संकल्प के साथ निंदा एवं अपराध होने की उपेक्षा करके निर्भय बन जाता है वही अमाप लक्ष्मी तत्काल प्राप्त करता है । कोई भी भगीरथ काम कंठिनता के कारण अवरुद्ध प्रवृत्ति हो जाए वह भी जब काम का आरंभ कर देते हैं तो आसान बन जाता है ।