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तरंगवती घर में फूली समाती न थी। स्नान किया, बलिकर्म किया एवं पूजनीय अरिहंतों को वंदन किया। इसके बाद उपवास का मैंने पारना सुखपूर्ण चित्त से किया। हे गृहस्वामिनी, उपवास पारने का परिश्रम मैंने शीतल चद्दरवाले गद्दे पर लम्बी तानकर हलका किया । तरंगवती की मैंगनी : अस्वीकार - मैं उससे समागम करने के मनोरथ पालती हुई, उसकी हृदयस्थ मूर्ति से खेलती, हृदयस्थ मूर्ति से मिलकर खेलने प्रिय विधविध मनोरथ पूरे करने के लिए व्याकुल रहती थी। इस बीच एक बार सारसिका दासी मेरे पास से कहीं चली गई और कुछ समय के बाद फिर मेरे पास आई । गर्म-गर्म उसासें भरती, आँखों में छलछलाते अश्रु कष्ट से रोककर, परितप्त मन से वह कहने लगी :
पृथ्वी का प्रवासी वह सार्थवाह धनदेव अपने बंधुजनों एवं मित्रों को साथ लेकर श्रेष्ठी के पास तुम्हारी मैंगनी के वास्ते हमारे दीवानखाने में आया था। उसने कहा, "हमारे पद्मदेव से आपकी कन्या तरंगवती ब्याहने का प्रस्ताव लेकर हम आये हैं । आप जो मूल्य माँगेंगे वह हम देंगे।"
यह सुनकर निर्दय श्रेष्ठी ने माँग का अस्वीकार करते हुए ऐसे विवेकहीन कटु वचन सुनाये :
"प्रवास जिसका मुख्य कर्म है, जिसका निज के घर में स्थिर वास ही नहीं, जो सभी देशों का अतिथि जैसा है, उससे मैं अपनी पुत्री कैसे ब्याहूँ ? सार्थवाह परिवार अच्छा खासा समृद्ध है फिर भी उसमें रहकर मेरी पुत्री को पतिवियोग में एक गजरे से चोटी बांधकर रहना पड़ेगा, वेदना एवं उत्कंठा में दिन गुजारकर सिंगार करने से दूर रहना पड़ेगा, लगातार रुदन से लाल-भीगे नयन एवं म्लान वदन होकर पत्र लिखने में रत, वह सामान्य जल से स्नान करती रहेगी, उत्सव के प्रसंग पर मलिन अंग समान होकर रहना पड़ेगा। इस प्रकार जीवनभर, यह कहो कि वैधव्य जैसा दुःसह दुःख उसे भोगना पड़े, स्नान-प्रसाधन, सुगंधी विलेपन इत्यादि से वह अधिकतर वंचित ही रहे । इससे अच्छा है कि उसे किसी दरिद्र को देना मैं पसंद करूं।"
इस प्रकार मँगनी का अस्वीकार हुआ तब भले ही उसका सत्कार हँसकर