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तरंगवती
रश्मिजाल को समेटकर सूर्य अस्ताचल पर उतरने लगा। - पूर्वदिशारूप प्रेयसी के परिपूर्ण उपभोग से थका-हरा एवं अपनी निस्तेज कान्तिवाला सूरज पश्चिमदिशारूप सुन्दरी के उरोजों पर लुढ़क पड़ा ।
गगनतल में भ्रमण के कारण थका-माँदा सूरज मानो सुवर्णकी डोर समान अपने रश्मि के सहारे भूमितल पर उतरा ।
सूर्य के अस्त होते ही तिमिर कंलकित श्यामा(रात्री) की ओर से सारे जीवलोक को श्यामलता प्रदान की। .
हमने भी मुख्यद्वार के पास एक अनुपम रंगमंडप तैयार किया। वह हमारे निवासस्थान के कर्णफूल एवं राजमार्ग के बाजूबंद समान सुशोभित हो उठा। उसकी एक ओर हे गृहस्वामिनी ! विशाल वेदिका बनाई । उसके ऊपर रत्नकंबल का चंदोआ ताना । वहाँ मेरा वह चित्रपट्ट खडा कर दिया सारसिका को निगरानी का हवाला
चित्र के स्थान में अपने प्रियतम की खोज के लिए मैंने अपनी विश्वसनीय स्नेहपात्र, और उपकारक सारसिका को नियुक्त किया। मधुर, परिपूर्ण, प्रस्तुत, प्रभावक और रसिक वचन एवं भावों की सुज्ञा सारसिका से हे गृहस्वामिनी ! मैंने इस प्रकार कहा :
"तुम आकृति, इंगित एवं भाव देखकर अन्य का हृदयगत अर्थ समझ सकती हो । तो फिर मेरे प्राणों की रक्षा की खातिर तुम अपने हृदय में इतना धारण करना : यदि मेरा वह प्रियतम इस नगरी में अवतरित हुआ होगा तो इस चित्रपट्ट को देखकर उसे अपना पूर्वभव याद आएगा।
जिसने अपनी प्रिया के संग में जिन-जिन सुख-दुःखों का पहले अनुभव किया होता है, वे बाद में उसके वियोग में दिखाई पड़ने पर वह उत्कंठित हो उठता है । जगत में इसके अलावा मनुष्य के हृदय में जो गहन से गहनतम प्रिय व अप्रिय गूढार्य होता है वह प्रकट रूप से न कहा जाय तो भी उसकी आँखों के भावों से सूचित हो जाता है। चित्त में उग्र भाव उमड़ा होता है तब दृष्टि भी तीक्ष्ण बन जाती है। चित्त जब प्रसन्न होता है तब दृष्टि निर्मल, श्वेत बनी रहती है । लज्जित व्यक्ति की दृष्टि लौट पड़ी होती है, तो विरक्त व्यक्ति की दृष्टि