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तरंगवती - इस प्रकार अनेक मधुर वचनों से मुझे आश्वस्त किया। समझा-बुझाकर उसने मुझे स्वस्थ किया और जल लाकर मेरे आँसू धो डाले । इसके बाद हे गृहस्वामिनी ! दासी के साथ उस कदलीमंडप से मैं बाहर निकली और उस स्थान पर पहुँच गई जहाँ मेरी अम्मा के समीप हमारा परिचारक वर्ग टहल रहा था ।
प्रियमिलन वनभोजन से वापसी
वहाँ बावडी के तट पर बैठकर स्नान-सिंगार करने में व्यस्त अम्मा को देखकर मैं उनके पास गई। तब मेरी बिंदिया कुछ बिगडी हुई थी, आँखें लाल हो गई थीं, उनमें अंजन नाममात्र रह गया था। मेरा मुख प्रातःकाल के म्लान चंद्रसा फीका-निस्तेज देखकर अम्मा दुःखी हुई और कहने लगी, "बिटिया, क्या उद्यान में घूमने-घामने की थकान के कारण तुम इस वक्त मुरझाई उत्पलमालासी शोभा-सुषमाविहीन लग रही हो?'
उस समय प्रियतम के वियोग से जिसका सर्वस्व छीन गया हो ऐसी दुखिया मैं आँसू से डबडबाई आँखो के साथ बोली, 'मेरे सिर में दर्द हो रहा है।'
'तो बेटी तुम नगर में वापस लौट जाओ।' 'मुझसे एक डग भी चला नहीं जाएगा । मुझे ज्वर चढ आया है।'
यह वचन सुनकर अत्यंत खिन्न होकर मेरी वत्सल माताने कहा, 'जिससे तुम स्वस्थ हो जाओ हम ऐसा ही करेंगे। मैं भी यदि नगरी में न आऊँ तो ऐसी नादुरस्त तुम्हें अकेली कैसे भेज दूं? मेरी बिटिया, तुम सारे कुल की सर्वस्व हो।'
यह कहकर अतिशय स्नेहवाली मेरी अम्माने शयनानुकूल एक उत्तम वाहन मेरे लिए जोतवाया। इसके बाद उन महिलाओं से उसने कहा, "तुम सब स्नानसिंगार कर लेने के बाद, भोजन से निबट कर समय पर लौट आना । हाँ, मुझे जरा नगर जाना है, कुछ त्वरा का अनिवार्य काम है, परन्तु तुम सब किसी प्रकार व्यग्र मत होना।" इस प्रकार उन सबको भला लगे ऐसे लहजे में कहा। उन स्त्रियों को वनभोजन के आनंदोत्सव में कुछ भी रुकावट आए इस दृष्टि से अम्माने अपने नगर में लौटने का सही कारण बताया नहीं । साथ में आये हुए सब रक्षकों, देखभाल रखनेवाले बुजुर्गों एवं अंतःपुर-रक्षकों को अपने-अपने