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तरंगवती
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हुआ । चक्रवाकों के युगल देखने में जब तल्लीन थी तब तुरन्त मेरे हृदयसरोवर में मेरा वह चक्रवाक उत्तर आया और हे सखी ! अनेक गुणों के कारण रुचिकर ऐसे मेरे चक्रवाकी के भव में जो कुछ मैंने भुगता था और वह सब जो अभी कह सुनाया मुझे याद आया है । मेरी इस स्मृति के फलस्वरूप प्रियतम के उस वियोग की करुण कहानी मैंने तुम्हें संक्षेप में कह सुनाई ।' भावि जीवन के संबंध में निश्चय
'तुम्हें मेरे प्राणों की शपथ जब तक मेरे उस प्रियतम का मुझसे पुनर्मिलन हो न जाए तब तक यह बात तुम अन्य किसी को मत बताना । इस लोक में किसी भी प्रकार उससे मेरा समागम यदि हो सकेगा तो ही हे सखी, मैं मानवीय सुखभोगों की अभिलाषा रखूँगी । सुरतसुख की स्पृहा करती मैं आशापिशाची पर विश्वास कर उसे मिलने के लालच में सात वर्ष प्रतीक्षा करूँगी । परन्तु हे सखी ! उस अवधि में यदि मेरे हृदयमंदिर के वासी को न देख पाऊँगी तो जिन - सार्थवाह ने चलकर बताये मोक्षमार्ग में प्रव्रज्या अपनाऊँगी । फिर तो मैं ऐसा तपाचरण करूँगी जिसके फलस्वरूप सांसारिक बंधन में स्थित लोगों पर प्रियजनविरह का दुःख जो सहज ही आ पड़ता है वह मैं पुनः कदापि न पाऊँ । मैं श्रमणत्वरूप पहाड पर निर्विघ्न चढ़ जाऊँगी जिससे जन्म-मृत्यु इत्यादि सब दुःखों का निवारण हो जाएगा ।'
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हे गृहस्वामिनी ! इस प्रकार मुझमें दासी पर अत्यंत अनुराग एवं स्नेह होने के कारण दासी को मैंने अपनी कथनी कहकर अपना शोक कम किया। चेटी की ओर से आश्वासन
मेरा यह वृत्तांत सुनकर मुझ पर वात्सल्यवती, कोमल हृदया सारसिका मेरे दुःख एवं शोक से दुःखित होकर लम्बे समय तक रोती रही। तत्पश्चात् वह रोती-सिसकती मुझसे कहने लगी : "हाय रे ! ओ स्वामिनी ! मैने अब जाना कि प्रियविरह का तुम्हारा दुःख कितना हृदयदाहक है । पूर्वभव में किये अपने कर्मों के पापवृक्षों के कटु फल कालनिर्गमन के बाद पकते हैं । हे स्वामिनी ! तुम अपना विषाद इस समय भूल जाओ । हे भीरू ! दैवकृपा से तुम्हारे उस चिरपरिचित प्रियतम से तुम्हारा समागम हो ही जाएगा ।"