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तरंगवती किंकर्तव्यविमूढ बनी हुई मैं, स्वाभाविक प्रेमवश लगातार आ रही तरंगों से घिरे उसको, वह मृत था फिर भी जीवित मानती रही थी। परंतु जब उसे बिलकुल निस्तेज हुआ देखा तब एकाएक आ पड़े दुःसह शोकावेग से मूच्छित होकर होश खो बैठी। - इसके बाद किसी प्रकार होश में आने पर मैं अपने आगे के पंख चोंच से तोड़ने लगी. उसके पंख सहलाने लगी और पंख से मैं उसे भेंटने पडी। हे सखी ! मैं उसके आसपास उडती, पानी छिडकती, मृत प्रियतम के चारों ओर चक्कर काटती इस प्रकार मेरे हृदय के करुण विलापवचन बोलने लगी। चक्रवाकी-विलाप
अरेरे ! दूसरों के सुख को तहस-नहस करनेवाले किस बेदर्द ने इसे बींध डाला?
. किसने सरसीरूप सुंदरी के इस चक्रवाकरूप सौभाग्यतिलक को पोंछ डाला?
किसने मुझे अचानक यह स्त्रियों के सुख का विनाशक, शोकवर्धक सीमाहीन वैधव्य दिया ? . हे नाथ ! तुम्हारे विरह से उद्भूत अनुताप के धुएँ एवं चिंता की ज्वालामय शोकाग्नि से दहक रही हूँ
कमलपत्र की आड में जब तुम हो जाते और तुम्हारा रूप न दिखने पर मैं तम्हारे दर्शनवंचित हो जाती तब कमलसरोवर में मेरा मन न लगता था। मेरी दृष्टि अन्य किसी बात पर लुभाती ही न थी - कमलपत्र की दूरी पर तुम्हारे होने पर भी मुझे तुम दूर के अन्य देश गये हो ऐसा लगता था ।
तुम मेरे लिए अदृश्य जब बने हो तब मेरा यह शरीर किस लिए टिका है ? प्रिय के वियोग का दुःख सतत होता है । . दहन .
जब वनगज वापस चला गया तब वह वनचर मेरे सहचर को विद्ध देख आह भरता वहाँ आ पहुँचा । हाथ से काँपता, बडे शोकप्रवाह-जैसा वह व्याध,