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मंगल
संक्षिप्त तरंगवती कथा (तरंगलोला )
मैं सर्वप्रथम उन सब सिद्धों की वंदना करता हूँ, जो जरा और मरण के मगरों से भरपूर इस दुःखसमुद्र को पार कर गए हैं, जिन्होंने ध्रुव, अचल, अनुपम सुख पाया हैं
मैं विनयपूर्वक अंजुरिपुट रचकर, मस्तक नवाकर संघसमुद्र को वंदन करता हूँ - ऐसे संघसमुद्र को जो गुण, विनय, विज्ञान एवं ज्ञानजल से परिपूर्ण है ।
कल्याण हो सरस्वती का जो सरस्वती सात स्वर और काव्यवचनों का आवास है, जिसके गुणप्रभाव से सद्गत कविवर भी अपने नाम से जीवित रहते हैं ।
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कल्याण हो विद्वत्परिषद का जो परिषद काव्यसुवर्ण की निकषशिला है, निपुण कवियों की सिद्धिभूमि है, गुणदोष-परखैया है ।
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संक्षेपकार का पुरोवचन
पादलिप्त ने जो तरंगवती नाम की कथा की रचना की है, वह वैचित्र्यपूर्ण, बडे विस्तारप्रस्तार और देश्य शब्दों से सजी हुई है। उसमें कुछ स्थल पर मनोरम कुलकों, अन्यत्र युगलों एवं कालापकों, तो कभी-कभी घटकों का प्रयोग है, जो आम पाठकों के लिए दुर्बोध है। अतः यह कथा अब कोई न सुनता है, न कहता है, न उसके विषय में पूछता है : केवल विद्वद्धोग्य होने के कारण मामूली आदमी उसको लेकर क्या करे ? इसलिए पादलिप्तसूरि की क्षमा माँगता हूँ। मैं चिंतित हुआ कि 'यह कथा शायद नामशेष हो जाएगी अतः सूरिजी रचित गाथाओंमें से चयन किया और देश्य शब्द छान-छोड यथोचित संक्षिप्त किया, जो यहाँ प्रस्तुत करता हूँ, इसलिए पादलिप्तसूरि मुझे क्षमा करें।
ग्रंथकार की प्रस्तावना
विशाल जनसमूहों के निवासयुक्त एवं कलाकुशल लोगों से भरी-पूरी