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भूमिका
आनंदतिलक-कृत “आणंदा" (आनंद-गीत) अपभ्रंश की गीतियों में एक श्रेष्ठ रचना है ।
हमने डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री द्वारा सम्पादित कृति तथा स्व. नाहाजी से प्राप्त हस्तप्रत के आधार पर इसका संपादन किया है। शास्त्रीजी के अनुसार उन्होंने तीन हस्तप्रतों के आधार पर इसका सम्पादन किया था जो जैन विद्या संस्थान, श्री महावीरजी के पाण्डुलिपि सर्वेक्षण विभाग से प्राप्त की थी ।
४३ पद्यों की इस रचना का नाम 'आणंदा' है। जो कवि ने स्वयं (दोहा ४१) में बताया है ।
विषय की दृष्टि से देखें तो यह रचना अध्यात्म से परिपूर्ण है । इसमें आत्मा और परमात्मा के भेद तथा रहस्य का प्रतिपादन किया गया है। प्रसंगत: बाह्य क्रियाtatus का निषेध चित्त-शुद्धि एवं भाव- शुद्धि तथा गुरु की महत्ता, सहज समाधि का निरूपण और आत्मस्वभाव में अपने उपयोग को स्थिर करने का वर्णन किया गया है । रचनाकार ने सामान्यत: पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किए बिना सीधे सरल शब्दों में धार्मिक व आध्यात्मिक साधना का निर्देश किया है ।
प्रथम शताब्दी के आचार्य कुन्दकुन्द देव से लेकर छठी शताब्दी के योगीन्द्र देव, देवसेन, श्रुतसागर और दसवीं शताब्दी के मुनि रामसिंह के 'पाहुडदोहा' में वर्णित एक दीर्घ परम्परा रचनाकाल के समय तक चली आ रही थी । कवि ने उसी रहस्यवादी परम्परा में योगी की आत्म-साधना का वर्णन किया है ।
रचना लघु होने पर भी सारगर्भित है । इससे पता लगता है कि कवि को जैन धर्म व जैन दर्शन का गहन अध्ययन है । किन्तु उनके जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका है। भाषा से यह पता लगता है कि रचनाकार भारत के पश्चिम-उत्तरप्रदेश दिल्ली-हरियाणा के निकटवर्ती क्षेत्र का रहा होगा। क्योंकि भाषारचना खड़ी बोली के अधिक निकट है और आचार्य हेमचन्द्र की भाषा के अनन्तर ही रची गई प्रतीत होती है। अतः अनुमानतः रचना-काल तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध जान पडता है। ‘आणंदा' पर 'दोहापाहुड' का पूरा प्रभाव है। आनंदतिलक ने बहुत से विचार, पदावलि आदि 'दोहापाहुड' से लिये हैं। 'दोहा पाहुड' में आत्मा आदि