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वर्णी द्वारा सम्पादित पृष्ठ ७३ से ८० पर भावना का सविस्तार व्यौरा मिलता है। दिगम्बर परंपरा में कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथों में तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षा' ये दोनों प्रमुखतया है । इस विषय पर कार्तिकेय स्वामी ने विस्तार से परिचय दिया है। 'तत्त्वार्थसूत्र ' 'राजवार्तिक' 'श्लोकवार्तिक'-इनका उल्लेख किया जा सकता है। बाद में भी कई साहित्यिक रचनाएँ मिलती है । दुलीचन्द जैन ने भी इस विषय पर अच्छा प्रकाश डाला है । इससे हम समझ सकते हैं कि यह एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय है । यहाँ पर तो हमारा लक्ष्य सीमित है । इस सम्पादन से हम अनुप्रेक्षा साहित्य की एक अनु-अपभ्रंशकालीन दोहा-बद्ध रचना को विद्वानों के ध्यान पर लाना चाहते हैं । 'परमात्मप्रकाश', 'योगसार', 'दोहापाहुड', सावयधम्मदोहा-ऐसी रचनाओं की परंपराओं में बारह 'अणुपेहा'
यह लक्ष्मीचन्द की कृति में जो बारह अनुप्रेक्षाओं के बारे में बताया है उसका क्रम इस प्रकार है :
कृति में पहला दोहा मंगलरूप है जिसमें सिद्धात्माओं को वंदन किया गया है तथा दूसरे दोहे में अनुप्रेक्षा का महत्त्व बताया गया है।
दोहा ३ से ४ तक अनित्य भावना दोहा ५ से ६ तक अशरण भावना दोहा ७ से ८ तक संसार भावना
दोहा ९ से १० तक एकत्व भावना 1. Karttikeyānupreksa.
Printed with Hindi Commentary in Bombay 1904. cf Peterson, Report iv, P. 142 Bhandarkar Report 1883-84, P. 113. Hiralal Karttikeya Svāmin, whose Kattigeyānuprekkhā (Kārttikeyānuprekșa) enjoys a great reputation among the Jainas, probably also belongs to this earlier period, This work treats in 12 chapters of the 12 Anupreksas or meditations, to which both monk and layman must devote themselves, in order to emancipate themselves little by little from 'Karman'.
- Indian Literature, Page 577.