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________________ जते हैं, उस समय अन्य तीन दिशाओं में प्रभु के समान ही रूपवान तीन मूर्तियाँ सिंहासन आदि सहित देव स्थापित करते हैं। जिससे प्रभु का मुख चारों दिशाओं में दिखाई देता है। इससे चारों दिशाओं में बैठे हुए सबको लगता है कि भगवान हमारे सामने बैठ कर ही धर्मदेशना दे रहे हैं। (२४) जहाँ-जहाँ श्रीअरिहन्त-तोर्थंकर भगवन्त बिराजते हैं वहाँ उनके देह-मान से बारह गुना ऊँचा अशोक वृक्ष रचा जाता है । (२५) जहाँ-जहाँ श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर परमात्मा विचरते हैं वहाँ-वहाँ काँटे अधोमुख हो जाते हैं । (२६) जहाँ-जहाँ श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर भगवान चलते हैं वहाँ-वहाँ वृक्ष नीचे झुकते जाते हैं, मानो वे प्रभु को नमस्कार-प्रणाम करते हों। (२७) जिस स्थल में श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त विचरते हैं वहाँ आकाश में देवों द्वारा देवदुन्दुभि [वाद्य विशेष] बजती रहती है। (२८) जहाँ-जहाँ श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर परमात्मा विचरते हैं वहाँ-वहाँ संवर्तक जाति का पवन-वायु एक योजन प्रमाण पृथ्वी को शुद्ध कर [अर्थात् कचरा आदि श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३९
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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