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हो जाता है और नए रोगों की उत्पत्ति भी नहीं
होती है। (६) उपर्युक्त कथनानुसार प्रभु की स्थिति से पाँचसौ
गाउ तक प्राणियों के पूर्व भव में बाँधे हुए तथा जाति से उत्पन्न हुए वैर परस्पर पीडाकारी नहीं होते हैं।
(१०) उपर्युक्त कथनानुसार प्रभु की स्थिति से पाँचसौ
कोस तक समस्त ईतियाँ (अर्थात् सात प्रकार के उपद्रव ) तथा धान्यादिक को विनाश करने वाले जीव- टिड्डी, तोते, चूहे इत्यादि उत्पन्न नहीं होते हैं ।
(११) उपर्युक्त भूमि में महामारी, दुष्ट देवतादिक के
उत्पात अर्थात् उपद्रव तथा अकालमृत्यु-मरण नहीं होते हैं।
(१२) उपर्युक्त भूमि में प्रतिवृष्टि अर्थात् लगातार-निरन्तर
वर्षा नहीं होती है। जिससे धान्य मात्र नष्ट हो जाय ऐसी बरसात नहीं होती है ।
(१३) उपर्युक्त भूमि में अनावृष्टि अर्थात् जल का सर्वथा
अभाव नहीं होता है। जिससे धान्यादिक की उत्पत्ति ही न हो ऐसी अनावृष्टि नहीं होती है ।
श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३६