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________________ चौंतीस अतिशय श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर परमात्माओं के चौंतीस अतिशयों के सम्बन्ध में पूर्वाचार्यों ने कहा है कि--- "चउरो जम्मप्पभिई, इक्कारस कम्मसंखए जाए। नवदस य देवजरिणए, चउत्तीसं अइसए वन्दे ।।१॥" जन्म के चार अतिशय, कर्मक्षय से उत्पन्न हुए ग्यारह अतिशय और देवकृत उन्नीस अतिशय होते हैं । उन चौंतीस अतिशय युक्त [ ऐसे श्रीअरिहन्त-तीर्थंकर भगवान को ] प्रभु को मैं वन्दन करता हूँ ॥१॥ __कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरीश्वरजी म. सा० ने भी इन चौंतीस अतिशयों का निर्देश अपने 'श्रीअभिधानचिन्तामणि कोश' में क्रमशः इस प्रकार किया है-- "तेषां च देहोऽद्भुतरूपगन्धो, निरामयः स्वेदमलोज्झितश्च । श्वासोऽप्यगन्धोरुधिरामिणं तु, गोक्षीरधाराधवलं ह्यविनम् ॥५७॥ पाहारनीहारविधिस्त्वदृश्यः, चत्वार एतेऽतिशया सहोत्था, क्षेत्रस्थितिर्योजनमात्रकेऽपि, नृदेवतिर्यगजनकोटिकोटे:, ॥५॥ श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-३२
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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