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________________ (६) भामण्डल-श्री अरिहन्त-तीर्थंकर भगवान के मस्तक के पीछे शरद्-ऋतु के सूर्य के समान महातेजस्वी भामण्डल देवता रचते हैं । वह भगवन्त के तेज को अपने तेज में संहरित कर लेता है । जो वह न हो तो भगवान के मुख सन्मुख न देखा जा सके । (७) दुन्दुभि-श्रीअरिहंत-तीर्थंकर परमात्मा के समवसरण के समय देवता देवदुन्दुभि आदि वाजीन्त्र बजाते हैं । यह इस बात की सूचना देता है कि हे भव्यात्माओ! तुम शिवपुर के सार्थवाह समान ऐसे इन भगवन्त को सेवो। (८) छत्र-समवसरण में श्रीअरिहंत-तीर्थंकर भगवन्त के मस्तक पर उपर्यु परि शरद्-ऋतु के चन्द्रमा के समान श्वेत और मोतियों के हारों से सुशोभित ऐसे तीन-तीन छत्र देवता रचते हैं। ____ स्वयं भगवन्त तो समवसरण में पूर्वाभिमुख बैठते हैं । अन्य तीन दिशाओं में देवता भगवन्त के जैसे तीन प्रतिबिम्ब स्थापित करते हैं। इससे बारह छत्र समवसरण में होते हैं। वे इस तरह सूचित करते हैं कि तीन लोक के स्वामी ऐसे इन भगवन्त को हे भव्यात्माओ! तुम सेवो। समवसरण न हो तो भी ये आठ प्रातिहार्य अवश्य होते हैं। श्रीसिद्धचक्र-नवपदस्वरूपदर्शन-२४
SR No.002288
Book TitleSiddhachakra Navpad Swarup Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri
PublisherSushilsuri Jain Gyanmandir
Publication Year1985
Total Pages510
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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